
जीवन परिचय –
मैथिल कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबीर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। ‘महाकवि कोकिल विद्यापति’ का पूरा नाम “विद्यापति ठाकुर था। धन्य है उनकी माता “हाँसिनी देवी” जिन्होंने ऐसे पुत्र रत्न को जन्म दिया, धन्य है विसपी गाँव जहाँ कवि कोकिल ने जन्म लिया।
कहा जाता है कि स्वयं भोले नाथ ने कवि विद्यापति के यहाँ उगना (नौकर का नाम) बनकर चाकरी की थी।‘श्री गणपति ठाकुर’ ने कपिलेश्वर महादेव की अराधना कर ऐसे पुत्र रत्न को प्राप्त किया था। जन्मतिथि की तरह महाकवि विद्यापति ठाकुर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है।
नगेन्द्रनाथ गुप्त सन् 1440 ई. को महाकवि की मृत्यु तिथि का वर्ष मानते हैं। डॉ. सुभद्र झा का मानना है कि “विश्वस्त अभिलेखों के आधार पर हम यह कहने की स्थिति में है कि हमारे कवि का मसय 1352 ई. और 1448 ई. के मध्य का है।
सन् 1448 ई. के बाद के व्यक्तियों के साथ जो विद्यापति की समसामयिकता को जोड़ दिया जाता है वह सर्वथा भ्रामक हैं।” डॉ. विमानबिहारी मजुमदार सन् 1460 ई. के बाद ही महाकवि का विरोधाकाल मानते हैं। महामहोपाध्याय उमेश मिश्र के अनुसार सन् 1466 ई. के बाद तक भी विद्यापति जीवित थे।
डॉ. शिवप्रसाद सिंह विद्यापति का मृत्युकाल 1447 मानते है। इतना स्पष्ट है और जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय ज़िला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने प्राण त्याग किया था।
- पूरा नाम – विद्यापति ठाकुर।
- अन्य नाम – महाकवि कोकिल।
- जन्म – सन् 1350 से 1374 के मध्य।
- मृत्यु – सन् 1440 से 1448 के मध्य।
- जन्म भूमि – बिसपी गाँव, मधुबनी ज़िला, बिहार।
- पिता – श्री गणपति ठाकुर।
- माता – श्रीमती हाँसिनी देवी।
- विषय – श्रृंगार और भक्ति रस।
- भाषा – संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली।
- कर्म- क्षेत्र संस्कृत साहित्यकार।
- पुरस्कार- उपाधि महाकवि।
- नागरिकता – भारतीय।
- मुख्य रचनाएँ – कीर्तिलता, मणिमंजरा नाटिका, गंगावाक्यावली, भूपरिक्रमा आदि।
जन्म –
ऐसे किसी भी लिखित प्रमाण का अभाव है जिससे यह पता लगाया जा सके कि महाकवि कोकिल विद्यापति ठाकुर का जन्म कब हुआ था। यद्यपि महाकवि के एक पद से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मण-संवत् 293, शाके 1324 अर्थात् सन् 1402 ई. में देवसिंह की मृत्यु हुई और राजा शिवसिंह मिथिला नरेश बने।
इस प्रकार 1402 में से 52 घटा दें तो 1350 बचता है। अत: 1350 ई. में विद्यापति की जन्मतिथि मानी जा सकती है। लक्ष्मण-संवत् की प्रवर्त्तन तिथि के सम्बन्ध में विवाद है। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों के अनुसार उस समय राजा शिवसिंह की आयु 50 वर्ष की थी और कवि विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े, यानी 52 वर्ष के थे।
कुछ लोगों ने सन् 1109 ई. से, तो कुछ ने 1119 ई. से इसका प्रारंभ माना है। स्व. नगेन्द्रनाथ गुप्त ने लक्ष्मण-संवत् 293 को 1412 ई. मानकर विद्यापति की जन्मतिथि 1360 ई. में मानी है। ग्रिपर्सन और महामहोपाध्याय उमेश मिश्र की भी यही मान्यता है।
परन्तु ब्रजनन्दन सहाय ‘ब्रजवल्लभ‘, रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. सुभद्र झा आदि सन् 1350 ई. को उनका जन्मतिथि का वर्ष मानते हैं। अपने ग्रन्थ विद्यापति की भूमिका में एक ओर डॉ. विमानविहारी मजुमदार लिखते है कि “यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था।
वे कितने दिन जीते रहे” और दूसरी ओर अनुमान से सन् 1380 ई. के आस पास उनकी जन्मतिथि मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद के अनुसार “विद्यापति का जन्म सन् 1374 ई. के आसपास संभव मालूम होता है।” हालांकि जनश्रुति यह भी है कि विद्यापति राजा शिवसिंह से बहुत छोटे थे।
रचनाएँ –
महाकवि विद्यापति संस्कृत, अवहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्त्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो, धर्म, दर्शन हो, न्याय, सौन्दर्यशास्र हो, विरह-व्यथा, भक्ति-रचना हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो, सामान्य जनता के लिए गया।
पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं की बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुष्य और दूरदर्शिता से उनका मार्गदर्शन करते रहे। जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है-
- देवसिंह।
- कीर्तिसिंह।
- नरसिंह।
- शिवसिंह।
- भैरवसिंह।
- पद्मसिंह।
- चन्द्रसिंह।
- धीरसिंह।
इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
- विश्वासदेवी।
- धीरमतिदेवी।
- लखिमादेवी (देई)।
कृतियाँ –
संस्कृत में है –
- दुर्गाभक्तितरंगिणी- (कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित)
- पुरुषपरीक्षा- (मैथिली अकादमी, पटना से प्रकाशित)
- मणिमञ्जरी- नाटक (मैथिली अकादमी, पटना से प्रकाशित)
- विभागसार- (मैथिली अकादमी, पटना तथा विद्यापति-संस्कृत-ग्रन्थावली, भाग-१ के रूप में कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित)
- गोरक्षविजय- नाटक (कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित ‘मिथिला परम्परागत नाटक-संग्रह’ में संकलित।)
- भूपरिक्रमा – (राजा देव सिंह की आज्ञा से विद्यापति ने इसे लिखा। इसमें बलराम से सम्बन्धित शाप की कहानियों के बहाने मिथिला के प्रमुख तीर्थ-स्थलों का वर्णन है।)
- शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत पुराण-संग्रह (विद्यापति-संस्कृत-ग्रन्थावल)-, भाग-२ के रूप में कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित)
- दानवाक्यावली ( ” ” )
- गंगावाक्यावली।
- शैवसर्वस्वसार- ( ” ” )
- लिखनावली।
- गयापत्तलक।
- वर्षकृत्य ।
अवहट्ठ में-
- कीर्तिपताका- (मूल, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद सहित नाग प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित)
- कीर्तिलता- (मूल, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद सहित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित)
इसके अतिरिक्त शिवसिंह के राज्यारोहण-वर्णन और युद्ध-वर्णन से सम्बन्धित कुछ अवहट्ठ-पद भी उपलब्ध हैं।
मैथिली मे –
- पदावली- (मूल पाठ, पाठ-भेद, हिन्दी अनुवाद एवं पाद-टिप्पणियों से युक्त विस्तृत संस्करण विद्यापति पदावली नाम से तीन खण्डों में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित)
शृंगार रस के कवि –
हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ शुक्ल जी ने सम्वत् 1050 से माना है। वे मानते हैं कि प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आरम्भ होना चाहिए इसे ही वे वीरगाथा काल मानते हैं। उन्होंने इस सन्दर्भ में इस काल की जिन आरम्भिक रचनाओं का उल्लेख किया है उनमें विद्यापति एक प्रमुख रचनाकार हैं तथा उनकी प्रमुख रचनाओं का इस काल में बड़ा महत्व है।
कीर्तिलता के बारे में यह स्पष्ट लिखा है कि-ऐसा जान पड़ता है कि कीर्तिलता बहुत कुछ उसी शैली में लिखी गई थी उनकी प्रमुख रचनाएं हैं- कीर्तिलता कीर्तिपताका तथा पदावली। जिसमें चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो लिखा था।
इसमें संस्कृत ओर प्राकृत के छन्दों का प्रयोग हुआा है। यह भृंग और भृंगी के संवाद-रूप में है। संस्कृत और प्राकृत के छन्द रासो में बहुत आए हैं। रासो की भांति कीर्तिलता में भी गाथा छन्द का व्यवहार प्राकृत भाषा में हुआा है।
कत न वेदन मोहि देसि मरदाना। हट नहिं बला, मोहि जुबति जना।
भनई विद्यापति, तनु देव कामा। एक भए दूखन नाम मोरा बामा।
गिरिवर गरुअपयोधर परसित। गिय गय मौतिक हारा।
काम कम्बु भरि कनक संभुपरि।
विद्यापति की कविता शृंगार और विलास की वस्तु है, उपासना एवं साधना उनका उद्देश्य नही है। राधा और कृष्ण साधारण स्त्रीपुरुष के रूप में परस्पर प्रेम करते हैं। स्वयं विद्यापति ने अपनी रचना कीर्तिपताका में लिखा है- सीता की विरह वेदना सहन करने के कारण राम को चतुर-काम-कला अनेक स्त्रियों के साथ रहने की वेदना उत्कट इच्छा उन्होंने कृष्णावतार लेकर गोपियों के साथ विभिन्न प्रकार से कामक्रीडा की। अतः स्पष्ट है कि स्वयं कवि की दृष्टि में कृष्ण और राधा श्रृंगार रस के नायक-नायिका ही थे।
गीतगोविन्द की भाँति उनकी पदावली में राधा-कृष्ण की प्रेममयी मूर्ति की झांकी दृष्टिगोचर होती है। कुछ आलोचकों का कहना है कि विद्यापति ने पदावली की रचना वैष्णव साहित्य के रूप में की है। उन्होंने अपने इष्ट की उपासना सामाजिक रूप में की है। इस दृष्टिकोण से उन्होंने विद्यापति के उन पदों को उद्धृत किया है जो विद्यापति ने राधा, कृष्ण, गणेश, शिव आदि की वन्दना के लिए लिखे हैं। राधा की वन्दना-विषयक एक पद देखिए-
देखदेख राधा-रूप अपार। अपुरुष के बिहि आनि मिला ओल।
खिति-बल लावनि-सार। अंगहि अंग अनंग मुरछायत,हेरए पडए अधीर।
यही नहीं, उन्होंने प्रार्थना एवं नर-नारी के प्रसंग में भी अनेक देवीदेवताओं, राधाकृष्ण, दु्र्गा, शिव, विष्णु, सूर्य आदि की वन्दना की है। बगैर ही उनके प्रार्थना सम्बन्धी पदों के आधार पर ही उन्हें भक्त कवि मान लेते हैं।
कुछ समालोचक ऐसे भी हैं जो विद्यापति के श्रृंगारिक पदों की ओर ध्यान दिए। यह सत्य है कि उन के कुछ भक्ति परक पद हैं परन्तु श्रृंगार परक रचना अधिक है यहां तक कि भक्ति परक पदों में भी श्रृंगार का अतिशय वर्णन किया गया है।
राजनीतिक जीवन –
विद्यापति ने जिन राजाओं के लिए काम किया, उनकी स्वतंत्रता को अक्सर मुस्लिम सुल्तानों द्वारा घुसपैठ से खतरा था। कीर्तिलता एक ऐसी घटना का संदर्भ देता है। 1401 तक, विद्यापति ने जौनपुर सुल्तान अरसलान को उखाड़ फेंकने और गणेश्वर के पुत्रों, वीरसिंह और कीर्तिसिंह को सिंहासन पर स्थापित करने में योगदान दिया। जिसमें ओइनवार राजा, राजा गणेश्वर, को तुर्की सेनापति मलिक अरसलान ने 1371ई में मार दिया था।
सुल्तान की सहायता से, अरसलान को हटा दिया गया और सबसे बड़ा पुत्र कीर्तिसिंह मिथिला का शासक बना। उनके समय के संघर्ष उनके कार्यों में स्पष्ट हैं। अपनी प्रारंभिक स्तुति-कविता ‘कीर्तिलता‘ में, उन्होंने मुसलमानों के प्रति उनके कथित सम्मान के लिए अपने संरक्षक की धूर्तता से आलोचना की।