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सत्संगति का महत्त्व पर निबंध – Satsangati ka mahatv par nibandh

सत्संगति का महत्त्व अथवा सत्संग का महत्त्व अथवा कुसंग का ज्वर भयानक होता है अथवा सत्संग का प्रभाव ‘अथवा सठसुधरंहि सत्संगति पाई

रूपरेखा – 1. प्रस्तावना 2. संगति का प्रभाव 3. सत्संगति का अर्थ 4. सत्संगति से लाभ 5. कुसंगति से हानि 6. उपसंहार।

Satsangati ka mahatv par nibandh
Satsangati ka mahatv par nibandh

1. प्रस्तावना – मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के वातावरण के द्वारा प्रभावित होता है। मूल रूप से मानव के विचारों एवं कार्यों को उसके संस्कार, वंश परम्पराएँ ही दिशा प्रदान कर सकती हैं। यदि उसे अच्छा वातावरण प्राप्त होता है तो वह श्रेष्ठ कार्यों को सम्पादित करता है। यदि उसे उचित वातावरण सुलभ नहीं हो पाता है तो उसके कार्य भी उससे प्रभावित होते हैं।

ठीक ही कहा है कि सज्जनों की संगति में गुण व दुर्जनों की संगति में दोष ही दोष मिलते हैं। संगति का चर-अचर सभी जीवों पर प्रभाव पड़ता है। हवा भी गर्मी व ठण्ड की संगति पाकर वैसी बन जाती है। मानव समाज में सज्जन लोगों की संगति को सत्संगति कहते हैं। सज्जन व्यक्ति के बारें में कवि कहता है-

“ऐसे भी लोग मिले हमको,
जिनके घर एक छदाम नहीं।
पर, दिल के वह बड़े धनी हैं,
धनियों से अधिक उदार कहीं।’

2. सत्संगति का प्रभाव – मनुष्य अपना अधिकांश समय जिस वातावरण एवं संगति में व्यतीत करता है उसका प्रभाव उस पर आवश्यक रूप से पड़ता है। केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी एवं वनस्पतियों पर भी इसका प्रभाव होता है।

यदि किसी मांसाहारी पशु को शाकाहारी प्राणी के साथ रखा जाए, तो उसकी आदतों में स्वयं ही परिवर्तन हो जाएगा। सज्जनों की संगति में गुण तथा दुर्जनों की संगति में दोष ही दोष मिलते हैं। संगति का चर-अचर सभी जीवों पर परस्पर प्रभाव पड़ता है। हवा भी अपना प्रभाव साथ का देती है।

3. सत्संगति का अर्थ- सत्संगति का अर्थ है— ‘अच्छी संगति’ । वास्तव में ‘सत्संगति’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है—‘सत्’ + ‘संगति’ अर्थात् अच्छी संगति। अच्छी संगति से तात्पर्य है—ऐसे महापुरुषों के साथ निवास जिनके विचार अच्छी दिशा की ओर ले जाएँ। यदि मनुष्य को जीवन में सत्संगति में प्राप्त हो जाए, तो यह कठिन से कठिन कार्य करने से भी नहीं घबराता है।

यह सभी प्रकार की परिस्थिति का सामना करने के लिए तत्पर रहता है। संगति मनुष्य के जीवन को भी प्रभावित करती है। यदि मनुष्य की संगति उच्च आर्दशों वाली तथा दूसरों का हित करने वाली है, तो यह जीवन में अनेक ऐसे कार्य कर सकता है जो सदैव लोगों को उस मनुष्य की याद दिलाए और यदि मनुष्य को कुसंग प्राप्त होता है जो एक दिन उसका जीवन भी नर्क के समान हो जाता है।

सत्संगति के अल्पकाल में ही रत्नाकर डाकू महर्षि बाल्मीकि बन गया था और अंगुलिमाल श्रेष्ठ मानव। कुसंगति तो अच्छे अच्छों को पतन के गर्त में ढकेल देती है।

4. सत्संगति से लाभ – सत्संगति से अनेक लाभ हैं। सत्संगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करती है। सत्संगति के द्वारा दुष्ट व्यक्ति भी श्रेष्ठ बन जाता है। पापी व्यक्ति भी पुण्यात्मा तथा दुराचारी-सदाचारी बन जाते हैं। ऋषियों के संगत के प्रभाव से ही, बाल्मीकि जैसे भयानक डाकू महाकवि बन गए।

सज्जनों के पास शुद्ध मन तथा ज्ञान का भण्डार होता है। सत्पुरुषों की संगति से मनुष्य के दुर्गुण समाप्त होकर उनमें सद्गुणों का विकास होता है। कबीर का कथन है-

कबिरा संगति साधु की हरै और की व्याधि ।
संगत बुरी असाधु की आठौ पहर उपाधि ॥

सत्संगति के प्रभाव के कारण मनुष्य में ऐसे चरित्र का विकास होता है कि वह अपना और संसार का कल्याण कर सकता है।

5. कुसंगति से हानि–कुसंगति के कारण मनुष्य का विनाश निश्चित है। कुसंगति के प्रभाव के कारण मनस्वी पुरुष भी अच्छे कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। जो छात्र कुसंगति में पड़ जाते हैं वे अनेक प्रकार के व्यसन सीख जाते हैं, जिनका प्रभाव उनके जीवन पर अत्याधिक बुरा पड़ता है। इनके लिए प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। इनमें अनुशासनहीनता आ जाती है।

‘पं० रामचन्द्र शुक्लने कहा है ‘कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है।” किसी युवा पुरुष की संगति बुरी होगी, तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-पर-दिन अवनति के गर्त में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी, तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।

6. उपसंहार–वास्तव में सत्संगति वह पारस है जो जीवन रूपी लोहे को पारस बना देती है। मानव-जीवन सर्वांगीण विकास के लिए सत्संगति अनिवार्य है। इसके माध्यम से हम अपने लाभ के साथ-साथ अपने देश के हित में भी कार्य सम्पन्न कर सकते हैं। अतः मानव-जीवन में संगति का उतना ही महत्त्व है, जितना जीवन के लिए भोजन का। नीति कुशल कवि रहीम ने ‘ओछे व्यक्ति का साथ’ छोड़ने का परामर्श देते हुए सही ही कहा है-

‘ओछे की सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरो पे कारी करै ॥ “

अर्थात् ओछे व्यक्ति का साथ उसी प्रकार छोड़ देना चाहिए जैसे—अंगारे का साथ। ‘अंगार’ गर्म होने पर जलाता है और ठण्डा होने पर हाथ काले कर देता है। सत्संग जितना आवश्यक है, कुसंग उतना ही हानिकारक है।

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