राष्ट्रीय एकता और अखण्डता अथवा भारत की अथवा देश की एकता के पोषक तत्व अथवा राष्ट्रीय अखण्डता : आज की माँग अथवा राष्ट्रीय एकता हेतु आवश्यक उपाय अथवा राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएँ
रूपरेखा—1. प्रस्तावना 2. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता 8, राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्व 4. राष्ट्रीय एकता के अवरोधक तत्व 5. उपसंहार ।

राष्ट्रीय एकता और अखण्डता पर निबंध – Rashtriya Ekta aur akhandta par nibandh
1. प्रस्तावना– राष्ट्रीय एकता एक नैतिक और मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। यह एक भावना है और राष्ट्र का एकीकरण करने वाली मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो राष्ट्र के निवासियों में भाई-चारा तथा राष्ट्र के प्रति अपनेपन का भाव भरती है और राष्ट्र को संगठित तथा सशक्त बनाती है। राष्ट्रीय एकता के लिए भाषा, धर्म, जाति और संस्कृति की एकता आवश्यक नहीं होती और न विविधता बाधक होती है। वरन् राष्ट्रीय एकता विविधता के बीच ही जन्म लेती है, फूलती तथा फलती है।
हमारा देश भारत एक देश ऐसा ही है, जहाँ विविधता में एकता पाई जाती है। अतः राष्ट्रीय एकता को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय एकता राष्ट्र के निवासियों के हृदय की वह पवित्र भावना है जो भूगोल, भाषा, धर्म, जाति, सम्प्रदाय, सभ्यता और संस्कृति में भिन्नता होते हुए भी उन्हें एकता के सूत्र में बाँधकर देश को संगठित और सुदृढ़ बनाती है।
जब कभी इस एकता को खण्डित करने का प्रयास किया जाता है तो भारत का एक-एक नागरिक सजग हो उठता है तथा राष्ट्रीय एकता को खण्डित करने वाली शक्तियों के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन प्रारम्भ हो जाता है। वस्तुतः राष्ट्रीय एकता हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव का अभिमान नहीं है वह मनुष्य नहीं वरन् पशु के समान है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नही नर पशु है निरा, और मृतक समान है।
2. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता – राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाहरी शत्रुओं से रक्षा के लिए राष्ट्रीय एकता परम् आवश्यक है। यदि हम भारतवासी किसी कारणवश छिन्न-भिन्न हो गए, तो हमारी पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने के प्रयास करेंगे।
अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में बोलते हुए “श्रीमती इन्दिरा गाँधी” ने कहा था- जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी। जब-जब भी विचारों में संकीर्णता आई, आपस में झगड़े हुए, जब कभी भी नए विचारों से अपना मुख मोड़ा, हानि हुई। हम विदेशी शासन के आधीन हो गए।
प्राय: हम देखते हैं कि नव स्वतन्त्रता पाने वाले देशों को जिस समस्या का सामना करना पड़ता है, वह राष्ट्रीय एकता ही है। राष्ट्रीय एकता राष्ट्र का प्राण है। जब राष्ट्रीय एकता टूटती है तो राष्ट्र समाप्त हो जाता है। इतिहास इसका प्रमाण है कि जब हमारे यहाँ राष्ट्रीय एकता का अभाव हुआ, तब-तब हमें अपमानित होना पड़ा और हमारे देश को गुलामी का जीवन जीना पड़ा। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता राष्ट्र की प्राणदायिनी शक्ति है और भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए उसकी आवश्यकता तो स्वयं सिद्ध है।
3. राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्व- देश की सुरक्षा और विकास के लिए राष्ट्रीय एकता बहुत आवश्यक है। हमें राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्वों की ओर ध्यान देना चाहिए। राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्वों में नागरिकता, एक राष्ट्रभाषा, संविधान, राष्ट्रीय प्रतीक, राष्ट्रीय पर्व, सामाजिक समानता आदि प्रमुख हैं। इन तत्वों से लोगों में विद्वेष की भावना समाप्त होती है और राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है।
महापुरुषों के सन्देशों का पालन भी राष्ट्रीय एकता को पोषित और पुष्ट करता है। साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द बनाए रखने के लिए प्रत्येक देशवासी को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि प्रेम से प्रेम, घृणा से घृणा और विश्वास से विश्वास का जन्म होता है। हमें यह सोचना चाहिए कि हम अच्छे हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय के सदस्य होने के साथ-साथ अच्छे भारतवासी हैं। हमें यह जानना चाहिए कि सभी धर्म आत्मिक शान्ति के लिए भिन्न-भिन्न उपाय और साधन अपनाते हैं।
सभी धर्मों में भेद अनुचित माना गया है। सभी धर्म और उनके प्रवर्तक सत्य, अहिंसा, प्रेम, ममता, सदाचार और नैतिकता पर बल देते रहे हैं। इसलिए सच्चे धर्म के मूल में भेद नहीं है। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और चर्च सभी पूजा और प्रार्थना के पवित्र स्थान हैं। मनुष्यों को इन स्थानों पर आत्मा की शान्ति मिलती है। इन सभी स्थानों को हमें पूज्यभाव से देखना चाहिए और इनकी पवित्रता की सभी प्रकार से रक्षा करनी चाहिए। उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने धार्मिक और साम्प्रदायिक एकता की दृष्टि से अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा था-
मजहब नहीं सिखाता,आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा ॥
धार्मिक एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने सद्ग्रन्थों के वास्तविक सन्देश को समझें, उनके स्वार्थपूर्ण अर्थ न निकालें। विभिन्न धर्मों के आदर्श सन्देशों को संग्रहित किया जाए। प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में उनके अध्ययन की विधिवत व्यवस्था की जाए, जिससे भावी पीढ़ी उन्हें अपने आचरण में उतार सके और संसार के समक्ष ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर सके कि सभी धर्मों और सम्प्रदायों को महान बनाती हैं और उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती हैं।
4. राष्ट्रीय एकता के अवरोधक तत्व- हमें स्वतन्त्र हुए 70 वर्ष व्यतीत हो गए, किन्तु आज भी हम पूर्ण रूप से सूत्र में बँध नही पाए है। इसका कारण हमारे देश में साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता की भावना, जातिवाद ऐसे तत्व हैं जिनके द्वारा राष्ट्रीय एकता की भावना में अवरोध पैदा हो रहा है। देश में अनेक सम्प्रदायों के लोग रहते हैं जो अपने को एक-दूसरे से भिन्न और श्रेष्ठ समझते हैं।
वे छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे से लड़ते हैं। कभी-कभी उनकी लड़ाई उग्र रूप धारण कर जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। इस प्रकार की सम्प्रदायिक भावना राष्ट्रीय एकता को विघटित कर देती है। कुछ लोग भाषा के आधार पर राज्यों की सीमा बनाने की माँग करते हैं। क्षेत्रीयता की भावना के साथ जातिवाद भी हमारी राष्ट्रीय एकता में बाधक हैं। उच्च जाति के लोगों और हरिजनों के बीच होने वाले संघर्ष जातिवाद के ही परिणाम हैं। इस प्रकार साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता की भावना और जातिवाद हमारी राष्ट्रीय एकता के महान शत्रु हैं।
5. उपसंहार – भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र है। अतः इसके विकास व उन्नति के लिए आवश्यक है कि हम छोटी-छोटी बातों को लेकर संघर्ष न करें। इसके लिए हमारी सरकार को राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्वों को समूल नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए। देश के हर नागरिक को अपने हृदय में एक भावना जागृत करनी चाहिए कि हम सबसे पहले भारतीय हैं, इसके बाद पंजाबी, बंगाली, गुजराती, मद्रासी आदि हैं। इस भावना से ही हम विश्व के अन्य राष्ट्रों में अपना गौरवपूर्ण स्थान बना सकते हैं।
संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा। मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही समस्त संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। जब तक हममें मानवीयता की भावना का विकास नहीं होगा, तब तक मात्र उपदेशों, भाषणों एवं राष्ट्रीय गीत के माध्यम से ही राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता।