लेखक – परिचय

पदुमलाल पुन्नालाल ‘बख्शी’ का जीवन परिचय 390 शब्दों में – Padumlal Punnalal Bakshi ka jeevan parichay
पदुमलाल पुन्नालाल ‘बख्शी’ की विविध रूपिणी साहित्य-साधना से हिन्दी साहित्य संसार में नवीनता, प्रौढ़ता तथा व्यापकता जैसे गुणों का संचार हुआ। ललित निबन्धकार के रूप में उनको विशेष ख्याति प्राप्त हुई। एक गम्भीर विचारक, भावुक कवि, शिष्ट हास्य व्यंग्यकार, कुशल आलोचक व श्रेष्ठ कहानीकार के रूप में आप सदैव याद किए जाते रहेंगे।
जीवन-परिचय – बख्शी जी का जन्म 21 जून, सन् 1894 ई० में छत्तीसगढ़ के खैराबाद नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता श्री उमराव बख्शी तथा बाबा पुन्नालाल बख्शी साहित्य प्रेमी और साहित्य निर्माता थे।
आचार्य द्विवेदी के बाद सन् 1920 से 1927 ई० तक आपने कुशलता के साथ सरस्वती तथा तत्पश्चात् छाया नामक पत्रिका का सफल सम्पादन किया। सरस्वती पत्रिका के सम्पादन के बाद बख्शी जी शिक्षण का कार्य करने लगे। यहीं पर रहते हुए सरस्वती के इस अमर पुत्र का निधन 28 दिसम्बर, सन् 1971 ई० को हो गया।
कृतियाँ/ रचनाएँ– पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी साहित्य को विविध विधाओं पर अनेक विशिष्ट रचनाएँ प्रदान कीं। इनका संक्षेप में विवरण निम्नलिखित हैं-
(i) निबन्ध-संग्रह – पंचपात्र, तीर्थ रेणु, प्रबन्ध पारिजात, पद्मवन, कुछ यात्रा, मकरन्द बिन्दु, बिखरे पन्ने आदि ।
(ii) कहानी- अन्जलि तथा झलमला।
(iii) काव्य-संग्रह – शतदल तथा अश्रुदल ।
(iv) आलोचना – विश्व साहित्य, साहित्य शिक्षा, हिन्दी साहित्य विमर्श, हिन्दी उपन्यास साहित्य आदि।
(v) सम्पादन – छाया और सरस्वती पत्रिका।
(vi) अनूदित – तीर्थ सलिल, प्रायश्चित तथा उन्मुक्ति का बन्धन ।
भाषा-शैली – आचार्य शुक्ल जी की तरह बख्शी जी ने भी शुद्ध, परिष्कृत तथा परिमार्जित भाषा का प्रयोग अपने साहित्य में किया है। साथ ही साथ आवश्यकतानुसार उर्दू तथा अंग्रेजी भाषा के शब्दों का यथास्थान प्रयोग भी किया है। इस प्रकार आपकी भाषा सरल, सुबोध, प्रवाहपूर्ण तथा हास्यपूर्ण है।
बख्शी जी की शैली स्वाभाविक, गम्भीर, सरल स्पष्ट एवं प्रभावोत्पादक है। उनमें ‘गागर में सागर’ भरने की अपारशक्ति है। आपने अपने साहित्य में मुख्य रूप से भावात्मक, समीक्षात्मक, विवेचनात्मक, व्याख्यात्मक तथा व्यंग्यात्मक आदि शैलियों का विशेष रूप से प्रयोग किया है।
‘क्या लिखूँ’ बख्शी जी का एक ललित निबन्ध है। इसमें ललित निबन्ध के सभी गुण विद्यमान हैं। इस निबन्ध को पढ़कर निबन्ध के विषय में जॉनसन की प्रसिद्ध उक्ति का अनायास ही स्मरण हो आता है – “निबन्ध मन का आकस्मिक और उच्छृंखल आवेश है-असम्बद्ध और चिन्तनहीन बुद्धि विलास मात्र।”
हिन्दी साहित्य में स्थान-बख्शी जी ने खड़ीबोली का उत्थान किया। ये अपने पिता के ‘पदुमलाल’