मेरा प्रिय कवि अथवा मेरा प्रिय साहित्यकार अथवा गोस्वामी तुलसीदास अथवा लोकनायक ‘तुलसीदास’
रूपरेखा — 1. प्रस्तावना 2. जीवन परिचय तथा कृतियाँ 3. काव्यगत विशेषताएँ 4. समन्वय की साधना 5. उपसंहार ।

मेरा प्रिय कवि गोस्वामी तुलसीदास पर निबंध – Mera Piry Kavi Goswami Tulsidas par Nibandh
1. प्रस्तावना – संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यदि मुझसे पूछा जाए कि मेरा प्रिय साहित्यकार कौन है? तो मेरा उत्तर होगा – महाकवि तुलसीदास । यद्यपि तुलसी के काव्य में भक्ति-भावना प्रधान है, परन्तु इनका काव्य कई सौ वर्षों बाद भी भरतीय जनमानस में रचा-बसा हुआ है और उनका मार्ग-दर्शन कर रहा है, इसलिए तुलसीदास मेरे प्रिय साहित्यकार हैं।
मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र – गायक, भारतीय समाज के उन्नायक और काव्यरसिकों को परमानन्दायक गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के समन्वय-सरोवर में स्नान कराके जन-मन के सम्पूर्ण ताप-संताप दूर कर दिए। शोषित, पीड़ित और अपमानित जनता को आश्वासन दिया कि
जब-जब होई धरम की हानी । बढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब धरि मनुज सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
इसी कारण तुलसी और इनका कृतित्व विश्व के आस्तिक जनों के लिए सम्मान एवं प्यार का प्रतीक बन गया।
2. जीवन परिचय तथा कृतियाँ- – प्रायः प्राचीन कवियों और लेखकों के जन्म के बारे में सही-सही जानकारी नहीं मिलती। तुलसीदास के विषय में भी ऐसा ही है कि माना जाता है कि सन् 1599 में बाँदा जिले में इनका जन्म हुआ था। इनके जन्म के विषय में निम्न दोहा प्रचलित है-
‘सम्वत् पन्द्रह सौ चौवन, विसे कालिन्दी के तीर ।
श्रावण शुक्ल सप्तमी, तुलसी धरयो शरीर ॥
इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनके माता-पिता ने इनको अशुभ समझकर जन्म लेने के बाद त्याग कर दिया था। अतः इनका बचपन बहुत ही कठिनाइयों में बीता।
जन्मते समय बालक तुलसीदास रोये नहीं, किन्तु उनके मुख से ‘राम’ का शब्द निकला। उनके मुख में बत्तीस दाँत मौजूद थे। पुत्र के रूप में तुलसी सौभाग्यशाली नहीं थे। पिता और माता दोनों के स्नेह की छाया से वंचित तुलसी की शैशव-गाथा अत्यन्त करूणापूर्ण है-
माता-पिता जग जाहि तज्यौ,
विधिहुँ न लिखी कछु भाग भलाई
यह पंक्ति तुलसी के विपन्न बालपन की साक्षी है। इनको एक अनाथ के समान जीवन यापन करना पड़ा। लेकिन गुरू नरहरि ने बाँह पकड़कर तुलसी को तुलसीदास बनाया । समस्त शास्त्र – ग्रन्थों का अध्ययन कराया और राम चरणों का सेवक बनाकर उनमें भविष्य के मानसकार को प्रतिष्ठित किया।
युवावस्था में तुलसी का विवाह रत्नावली से हुआ था। पत्नी के व्यंगपूर्ण शब्दों के प्रहार से तुलसीदास ने ग्रहस्थवेश का परित्याग कर साधूवेश ग्रहण किया। इसके बाद इन्होंने कवित्व के रूप में इनका विशाल एवं भव्य है। इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ निम्न है –
रामललानहसू, पार्वती दोहावली, गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञा – प्रश्नावली, विनयपत्रिका, हनुमान बाहक, मंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, कवितावली आदि ।
सम्वत् 1680 श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार के दिन असी घाट पर गोस्वामी ने राम-राम कहते हुए अपना शरीर त्याग दिया। ठीक ही कहा गया—
सम्वत् 1680, असी गंग के तीर।
श्रावण कृष्ण तीज, शनि तुलसी तज्यौं शरीर ॥
3. काव्यगत विशेषताएँ— तुलसीदास का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब हिन्दू समाज मुसलमान शासकों के अत्याचारों से आतंकित था। लोगों का नैतिक चरित्र गिर रहा था और लोग संस्कारहीन हो रहे थे। ऐसे में समाज के सामने एक आदर्श स्थापित करने की आवश्यकता थी ताकि लोग उचित-अनुचित का भेद समझकर सही आचरण कर सकें।
यह भार तुलसीदास ने सँभाला और “रामचरितमानस” नामक महान काव्य की रचना की। इसके माध्यम से इन्होंने अपने प्रभु का चरित्र-चित्रण किया, यह भक्ति-भावना से युक्त प्रधान काव्य है। इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार रामचरितमानस ही है।
तुलसीदास जी वास्तव में एक सच्चे लोकनायक थे क्योंकि इन्होंने कभी किसी सम्प्रदाय या मत का खण्डन नहीं किया, वरन् सभी को सम्मान दिया। इन्होंने निगुण एवं सगुण दोनों धाराओं की स्तुति की। अपने काव्य के माध्यम से इन्होंने कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की प्रेरणा दी। रामचरितमानस के आधार पर इन्होंने एक आदर्श भारतवर्ष की कल्पना की थी, जिसका सकारात्मक प्रभाव हुआ भी, इन्होंने लोकमंगल को सर्वाधिक महत्व दिया ।
साहित्य की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अद्वितीय है। इनके काव्यों में सभी रसों को स्थान मिला है। इन्हें संस्कृत के साथ-साथ राजस्थानी, भोजपुरी, बुन्देलखण्डी, प्राकृत, अवधी, ब्रज, अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान था, जिनका प्रभाव इनके काव्य में दिखाई देता है। इन्होंने विभिन्न छन्दों में रचना करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है । तुलसी ने प्रबन्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के काव्य में रचनाएँ की।
4. समन्वय की साधना – तुलसीदास एक महान समन्वयवादी कवि थे। भारत में बुद्ध देव के बाद तुलसी से बड़ा कोई समन्वयवादी नहीं हुआ। इन्होंने अपने काव्य में निर्गुण तथा सगुण, ज्ञान और भक्ति भाव और भाषा-शैली, छन्द-विधान और अलंकार योजना में अपूर्व समन्वय स्थापित किया।
साहित्य के अतिरिक्त धर्म, राजनीति, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के क्षेत्र में भी उन्होंने समन्वय का परिचय दिया। तुलसी ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समन्वय का सफल प्रयोग किया है। इसीलिए उन्हें विराट समन्वयकारी कहा गया है। इसीलिए तुलसी सच्चे लोकनायक थे । तुलसीदास जी कहते हैं
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कुछ भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा
तथा भगतंहि ज्ञानंहि कछु नंहि भेदा । उभय हरंहिभव सम्भव खेदा ||
भले ही आज के राजनीतिज्ञ स्वार्थवश धर्म और राजनीति को परस्पर विरोधी बताते रहें, लेकिन तुलसी ने मानस की प्रयोग-भूमि पर यह सिद्ध कर दिखाया है कि धर्म के नियन्त्रण के बिना राजनीति अपने ‘नीति’ तत्व को खो बैठती है। पिता की आज्ञा पालन करने के लिए राम का राज्य-परित्याग करके वन को चले जाना, भरत का सिंहासन ठुकरा देना, धर्म और राजनीति के समन्वय का प्रशंसनीय प्रयास है। तुलसीदास जी कहते हैं-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसिनरक अधिकारी ॥
राम का भक्त उनके लिए शुद्र होते हुए भी ब्राह्मण से अधिक प्रिय और सम्मानीय है। चित्रकूट जाते महर्षि ‘वशिष्ठ’ ‘रामसखा’ निषाद को दूर से दण्ड प्रणाम करते देखते हैं तो उसे बरबस हृदय से लगा लेते हैं-
रामसखा मुनि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा ॥
एक संत, एक उपदेशक, एक लोक-हितेषी और लोकनायक के रूप में ही नहीं, विशुद्ध कवि के रूप में भी तुलसीदास अद्वितीय हैं। इनके काव्य का भाव और कलापक्ष दोनों ही समृद्ध और सन्तुलित हैं।
5. उपसंहार —तुलसीदास जी अपनी इन्हीं सब विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्य के अमर कवि हैं। नि:सन्देह इनका काव्य महान है। तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व, व्यक्ति और समाज सभी के लिए महत्वपूर्ण सामग्री दी हैं।
अत: ये मेरे प्रिय कवि हैं। इसीलिए तुलसीदास महाकवि तो थे ही, किन्तु उससे पूर्व वह लोकनायक, लोकउद्धारक थे। उनकी यह पंक्ति उनके सर्वप्रिय एवं मंगलकारी हृदय की झाँकी प्रस्तुत करती है –
भाषा भनिति भूति भलिसोई । सुरसरि समसब करि हित होई ।।
अपने इन्हीं गुणों के कारण तुलसी कवि-माला के सुमेरु हैं। कुछ ईष्यालु और अविवेकी लोग भले ही इन पर अनर्गल आरोप लगाते रहें, परन्तु वह हिन्दू समाज के मार्गदर्शक और विश्व-स -समाज के अनुकरणीय साहित्यकार हैं। अन्त में इनके बारे में यही कहा जा सकता है-
‘कविता करके तुलसी