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महाभारत कथा – Mahabharata story

महाभारत कथा

चन्द्रवंश से कुरुवंश तक की उत्पत्ति

चन्द्रवंश (Lunar Dynasty) और कुरुवंश (Kuru Dynasty) भारतीय महाकाव्य, पुराण और धार्मिक ग्रंथों में वर्णित हैं। यह दोनों वंश भगवान चंद्र (चंद्रमा) से प्राप्त हुए हैं, इसलिए इनका नाम चन्द्रवंश हुआ।

चन्द्रवंश का प्रारंभ चंद्र के पुत्र बुद्ध के साथ हुआ था। बुद्ध के पुत्र अन्धक ने अपने पुत्र ययाति को यह वंश जारी किया। ययाति के पुत्र पूरु थे, जिनके पुत्र जनमे और उनके पुत्र प्रतीप थे। प्रतीप के पुत्र शूरसेन थे, जिनके पुत्र धुन्धुमान थे। धुन्धुमान के पुत्र युद्धनश्य थे, जिनके पुत्र दशरथ थे। दशरथ के पुत्र रामचंद्र थे, जो एक प्रमुख हिन्दू देवता राम के रूप में प्रसिद्ध हैं।

कुरुवंश की उत्पत्ति का उल्लेख महाभारत में मिलता है। महाभारत के अनुसार, चन्द्रवंश के शाखा के राजा संतनु थे, जिनके दो पुत्र विचित्रवीर्य और बाह्लीक थे। विचित्रवीर्य के पुत्र धृतराष्ट्र और पांडु थे, जो कुरुवंश के प्रमुख कथाओं के पात्र थे। धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन और पांडु के पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, और सहदेव थे, जिन्होंने महाभारत युद्ध की अगुआई की थी।

इस तरीके से, चन्द्रवंश और कुरुवंश के बीच का संबंध महाभारत के कथाओं के माध्यम से स्थापित किया जाता है।

पाण्डु का राज्य अभिषेक

पाण्डु भगवान धर्म के पुत्र थे और महाभारत के कथानक के अनुसार उन्होंने पांच राज्यों की आज्ञा किया था। पाण्डु का राज्य अभिषेक उनके पांच राज्यों की आज्ञा के परिणामस्वरूप हुआ था। उनके पांच राज्य थे – कांडावप्रस्थ (हांसक), कुन्दिनीपुर (इंद्राप्रस्थ), वर्मावती, निशादपुर, और नागपुर।

पाण्डु ने इन पांच राज्यों की आज्ञा करने के बाद राज्यों का सुशासन किया और उनके राज्यों को समृद्धि और सुख-शांति से भर दिया। पाण्डु का यह राज्य अभिषेक महाभारत के महत्वपूर्ण किस्सों में से एक है और उनके राज्य का विवरण महाभारत के अनुसार मिलता है।

कर्ण का जन्म, लाक्षाग्रह षड्यंत्र तथा द्रौपदी स्वयंवर

कर्ण का जन्म: कर्ण का जन्म महाभारत के कथानक के अनुसार एक अद्भुत घटना से हुआ था। कर्ण का जन्म माता कुंती (पाण्डु की पत्नी) के योगदान के परिणामस्वरूप हुआ था, जब वह ब्रह्मास्त्र का परीक्षण कर रही थी। कुंती ने ब्रह्मा के आदेश पर अंधक राजा कर्ण को जन्म दिया था, लेकिन उसने कर्ण को एक बोझ के रूप में नदी में छोड़ दिया। कर्ण बचपन से ही सूर्य परमात्मा की शिक्षा प्राप्त कर भीमसेन की तरह महान योद्धा बन गए।

लाक्षाग्रह षड्यंत्र: लाक्षाग्रह (दियोजाकान) षड्यंत्र, महाभारत के प्रमुख घटनाओं में से एक था। इस षड्यंत्र के माध्यम से कौरव द्वारा पांडवों को हानि पहुंचाने की कोशिश की गई थी।

इस षड्यंत्र के दौरान, दुर्योधन ने पांडवों को खेल में हराने का योजना बनाई और उनका उपाय था लक्षागृह (कमरे की एक छायादार वर्तनी) में पांडवों को छुपाकर उन्हें जलने के लिए तैयार किया। यह योजना कर्ण और शकुनि की मदद से आयोजित की गई थी। धृतराष्ट्र की सहमति के बाद, पांडव भविष्य के युद्ध की तरफ बढ़ते हुए लाक्षागृह में प्रविष्ट हो गए थे, लेकिन विद्वेषा की बजाय उन्होंने सुरक्षित रूप से बाहर आने का प्रयास किया।

द्रौपदी स्वयंवर: द्रौपदी स्वयंवर महाभारत के कथानक का महत्वपूर्ण हिस्सा था। द्रौपदी, अपरूप सुंदरी पांच पांडवों की पत्नी थी। उसका स्वयंवर महाभारत के आदिकांड (किताब) में विवरणित है।

द्रौपदी के स्वयंवर में, कुरुक्षेत्र के राजा द्रुपद ने एक विशेष प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसमें केवल वीर और महान योद्धा ही द्रौपदी के पति बन सकते थे। यह प्रतियोगिता कठिन थी, क्योंकि उम्मीदवारों को एक धनुष उठाना और तीर का निशाना लगाना होता था। अर्जुन ने इस प्रतियोगिता में धनुष उठाने में सफलता प्राप्त की और द्रौपदी का पति बने।

इसके बाद, अर्जुन द्वारा जीते गए यह प्रतियोगिता द्रौपदी के पांच पतियों के रूप में जानी जाती है, जिन्हें हम पांडव के नाम से जानते हैं।

इन्द्रप्रस्थ की स्थापना

इंद्रप्रस्थ (इंद्रप्रस्थ नगर) की स्थापना महाभारत के कथानक के अनुसार युद्ध के बाद युद्ध से विजयी पांडवों द्वारा की गई थी। इसे नामक विन्ध्यप्रस्थ भी कहा जाता है।

महाभारत में वर्णित है कि पांडव भगवान श्रीकृष्ण के संवादों के माध्यम से इंद्रप्रस्थ की स्थापना की योजना बनाते हैं। वे इस नगर की स्थापना करने का उद्देश्य वहां अपना राज्य स्थापित करना और धर्म के अनुसार न्यायपूर्ण रूप से शासन करना था।

इंद्रप्रस्थ की स्थापना के लिए भगवान श्रीकृष्ण के सुझाव पर वे खांडवप्रस्थ नामक क्षेत्र पर गए और वहां नगर की नींव रखी। इसके बाद, युद्ध के बाद आगमने वाले जनसंख्या को बढ़ाने के लिए विभिन्न यात्राओं का आयोजन किया गया और इंद्रप्रस्थ नगर को अपने राज्य का मुख्य नगर बनाया।

इंद्रप्रस्थ के राजा युधिष्ठिर ने यहाँ युद्ध, धर्म, और न्याय के प्रति अपने निरंतर संकल्प के साथ शासन किया और इसे आदर्श नगर के रूप में स्थापित किया। इंद्रप्रस्थ की स्थापना महाभारत के महत्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य में घटित हुई थी और यह पांडवों के धर्म और संकल्प का प्रतीक था।

पाण्डवों की विश्व विजय और उनका वनवास

पांडवों की विश्व विजय (अग्राजन्म) और उनका वनवास महाभारत के महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक हैं। इसे महाभारत के युद्ध के पूर्व की कथानक के तौर पर वर्णित किया गया है:

  1. विश्व विजय (अग्राजन्म): पांडवों की विश्व विजय के पीछे की कहानी महाभारत में यह है कि वे युद्ध की तैयारी करते समय धृतराष्ट्र और दुर्योधन से छिपकर वन में चले जाते हैं। वहाँ उन्होंने बड़ी तपस्या और योग्यता के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त किया और ब्राह्मणों से गुप्त रूप में उपासना की। उन्होंने ब्राह्मणों की मदद से महत्वपूर्ण यात्राएं की, जिनमें वे विभिन्न भाग्यशाली और दैवी आदि चीजें प्राप्त करते हैं, जिनका उपयोग उनके युद्ध में सफलता प्राप्त करने में हुआ।
  2. वनवास: पांडवों की विजय के बाद, उन्हें अगरतला (वाराणसी) ले जाकर अपना दर्बार स्थापित करना पड़ता है। हांस्वा के राजा विराट के यहाँ वे अपने वनवास के दौरान छिपे रहते हैं। पांडवों के अग्राजन्म की खबर राजा विराट के यहाँ नहीं थी, इसलिए वे अपने आप को गुप्त रूप में छिपाने के लिए विभिन्न भूमिकाओं में उपस्थित होते हैं।

पांडवों का वनवास 11 वर्ष के लिए था, और इस दौरान वे विराट के दरबार में भिक्षुक और वनवासी के रूप में छिपे रहते हैं। इसके दौरान, अर्जुन अपने अग्यातवास (गुप्त रूप) में अपनी वाणी द्वारका जाते हैं और श्रीकृष्ण की मदद से सुदेश्ना (विराट की पुत्री) से विवाह करते हैं।

पांडवों का वनवास और उनके गुप्त रूप के यात्रा का वर्णन महाभारत के ‘विराट पर्व’ में मिलता है।

शांति दूत श्रीकृष्ण, युद्ध की शुरुवात तथा श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश

महाभारत में, युद्ध की शुरुवात और शांति दूत श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश दिया गया है, यह महत्वपूर्ण घटनाएं हैं:

  1. युद्ध की शुरुवात: महाभारत के महायुद्ध की शुरुवात धर्मयुद्ध के रूप में हुई थी, जिसके लिए अर्जुन और दुर्योधन की सेनाएं तैयार थीं। युद्ध की इस महत्वपूर्ण क्षण में, अर्जुन ने अपने सजीवनाथ द्रष्ट्व (सजीव दर्शन) के लिए भगवान श्रीकृष्ण से मदद की अपील की।
  2. शांति दूत श्रीकृष्ण: भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों के और कौरवों के बीच संवाद को सुलझाने के लिए शांति दूत के रूप में आगे आने का संकल्प किया। उन्होंने मध्यस्थता का कार्य किया और दोनों पक्षों के बीच समझौता करने का प्रयास किया, लेकिन दुर्योधन ने इसे स्वीकार नहीं किया और युद्ध की तय कर दी।
  3. अर्जुन को उपदेश: युद्ध के आगे बढ़ते समय, अर्जुन अविचलित और दुखी थे क्योंकि उन्हें अपने बड़े भईया, चाचा, और रिश्तेदारों के खिलाफ युद्ध लड़ना था। इस समय, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश दिया, जिसे “भगवद गीता” के रूप में जाना जाता है। इस उपदेश में, श्रीकृष्ण ने जीवन के विभिन्न पहलुओं, धर्म, कर्म, भक्ति, और मोक्ष के विषय में अर्जुन को ज्ञान और मार्गदर्शन दिया और उन्हें उनके कर्म का पालन करने की सलाह दी।

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता उपदेश ने महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन के मनोबल को बढ़ाया और उन्हें धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया।

भीष्म द्रोण वध

महाभारत में भीष्म पितामह और द्रोण आचार्य के वध के कथानक बहुत महत्वपूर्ण हैं और यह युद्ध के महत्वपूर्ण क्रमिक घटनाएं थीं:

  1. भीष्म वध: भीष्म पितामह योद्धाओं के अग्रणी थे और कौरव-पांडव युद्ध के महत्वपूर्ण रथयात्री थे। उन्होंने स्वयं युद्ध के प्रारंभ में भीष्म पर्व के दिनों में पांडवों के प्रति अपना पूरा शक्ति से सामर्थ्य दिखाया, लेकिन उन्होंने युद्ध में प्राप्त होने वाली चुनौतियों को तोड़ नहीं सके, क्योंकि वे कौरवों के पक्ष में थे।भीष्म पितामह का वध श्रीकृष्ण के उपाय के बाद हुआ। श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध में भीष्म को पराजित करने के लिए उनकी सभी विरों को अपनी युद्ध रथ के नीचे लगाने की सलाह दी और इसके परिणामस्वरूप भीष्म पितामह युद्ध में अपनी आँखों को बंद कर दिये और युद्ध रथ के नीचे लेट गए।यह वध एक ऐतिहासिक घटना है, जिसमें भीष्म पितामह ने स्वयं की तथा युद्ध की नियमों की आदर्श परिपालन किया।
  2. द्रोण वध: द्रोण आचार्य भीष्म के बाद महत्वपूर्ण योद्धा और कौरवों के सेनापति थे। उनका वध महाभारत के युद्ध के द्रोण पर्व में हुआ।द्रोण को पांडवों ने उसके पुत्र कर्ण के उपदेश के बाद ही मारा जा सकता था। युद्ध के दिन, अर्जुन और कृष्ण ने द्रोण को भ्रमित करने के उपाय का सुझाव दिया। अर्जुन ने झूले के रूप में अपने पुत्र का वध किया और द्रोण का ध्यान भटका दिया। कृष्ण ने फिर उनको समझाया कि उनका पुत्र जीवित है, और उन्हें द्रोण आचार्य की मृत्यु की खबर दी। इसके परिणामस्वरूप द्रोण ने अपने आयुध को गिरा दिया, और उसका वध हुआ।द्रोण वध भी एक महत्वपूर्ण घटना था और युद्ध के प्रगति में महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक था।

कर्ण और शल्य वध

कर्ण और शल्य दो महत्वपूर्ण महाभारत के योद्धा थे और उनका वध महाभारत के युद्ध के क्रम में हुआ था:

  1. कर्ण वध: कर्ण महाभारत के महान योद्धा और कौरवों के पक्ष के रथयात्री थे, जो अर्जुन के अपने बड़े भाई थे, लेकिन उन्होंने अपने पौत्र अर्जुन के प्रति विशेष द्वेष रखा था। कर्ण का वध भगवान श्रीकृष्ण के उपाय के बाद हुआ था।युद्ध के पहले दिन, भीष्म पितामह और अर्जुन के बीच युद्ध चुकता हो गया था, और युद्ध के दूसरे दिन कर्ण रथ चलाकर भीष्म के द्वारका क्षेत्र में पहुंचे। उसके बाद, युद्ध के इस दौरान, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्ण का वध करने के उपाय की सलाह दी और कर्ण के आयुध के चूजे को निकालने में मदद की। अर्जुन ने इसके परिणामस्वरूप कर्ण को मार गिराया। कर्ण का वध महाभारत के महत्वपूर्ण युद्ध की एक महत्वपूर्ण घटना था।
  2. शल्य वध: शल्य एक और महाभारत का महान योद्धा थे, जो कौरवों के पक्ष में थे। उन्होंने कर्ण की मृत्यु के बाद कौरवों की सेनापति की भूमिका निभाई थी।शल्य वध युद्ध के आखिरी दिन हुआ, जब पांडवों ने कौरवों के प्रति अपने अग्रणी योद्धाओं के साथ उमासहस्र क्षेत्र में युद्ध किया। अर्जुन और युद्ध रथ पर बैठे श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में, अर्जुन ने शल्य का वध किया और उनकी मृत्यु की।शल्य वध भी महाभारत के युद्ध के प्रति योद्धाओं की महत्वपूर्ण घटना थी, जिसमें पांडवों ने कौरवों के प्रति अपनी अद्वितीय युद्ध योग्यता दिखाई।

दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति

दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति महाभारत के अंतिम घटनाओं में से हैं:

  1. दुर्योधन वध: दुर्योधन महाभारत के युद्ध के पक्षपाती और अन्यायी राजा थे, और वे द्वारका के यात्रा के दौरान भगवान श्रीकृष्ण द्वारा समझाने के बावजूद युद्ध करने का निश्चय करते हैं। युद्ध के आखिरी दिन, भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को सुझाया कि वह युद्ध छोड़ दें और समझौता करें, लेकिन दुर्योधन ने इस पर तुरंत नकारात्मक रूप से जवाब दिया।इसके बाद, भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के दिल में भ्रम डालने के लिए अपने विश्वरूप (दिव्य स्वरूप) का दर्शन किया, जिसके कारण दुर्योधन बहुत ही डर गए और अपने अहंकार में हार मान ली। इसके परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का वध किया और उनकी मृत्यु हो गई।
  2. महाभारत युद्ध की समाप्ति: दुर्योधन की मृत्यु के बाद, महाभारत युद्ध का समापन हुआ। पांडव विजयी रहे और कौरव सेना का पूरी तरह से नाश हो गया। युद्ध के इस समय, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य, और अन्य महान योद्धा भी मारे गए थे।युद्ध के समापन के बाद, युद्धभूमि का दृश्य विभिन्न दुखों और विलाप के साथ भरा था, और उसमें बहुत सारे योद्धा और उनके परिवारजनों की मृत्यु का दृश्य था। इसके बाद, युद्ध के प्रति अर्जुन का और श्रीकृष्ण का विचारमय संवाद हुआ, जिसमें वे युद्ध के परिणाम को और जीवन के महत्वपूर्ण तत्वों को विचार किये।महाभारत युद्ध का समापन धर्म, कर्म, और भक्ति के महत्वपूर्ण सन्देशों के साथ हुआ और इसके परिणामस्वरूप भारतीय धार्मिक ग्रंथों में इसका उच्च महत्व रखा गया।

यदुकुल का संहार और पांडवों का स्वर्गगमन

महाभारत के अंत में, यदुकुल का संहार और पांडवों का स्वर्गगमन भी एक महत्वपूर्ण घटना था:

  1. यदुकुल का संहार: यदुकुल का संहार महाभारत के युद्ध के बाद हुआ। महाभारत युद्ध में यादव समुदाय के कई सदस्य भी भगवान कृष्ण के पास गए थे और उनके साथ रहे थे। युद्ध के बाद, भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका लौटने का निश्चय किया। वह द्वारका के बाहर समुद्र के किनारे एक पेड़ पर बैठे थे, और वहाँ पर उनके पांडव और यादव समुदाय के सदस्यों ने पेड़ की नीचे पीने के लिए एक अलख बनाई।इस अलख में आपस में झगड़े के कारण, यादव समुदाय के सदस्यों ने एक दूसरे का विरोध किया और उनमें हुई लड़ाई में वे आपस में मर गए। इसे “प्रत्युद्वाहन लीला” कहा जाता है और इसके परिणामस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण भी द्वारका में गए और अपने दिव्य स्वरूप में समुद्र में विलीन हो गए।
  2. पांडवों का स्वर्गगमन: महाभारत युद्ध के बाद, पांडव विजयी होते हैं, लेकिन उनके द्वारका आने पर वे यह देखते हैं कि वहाँ पर उनके पुरवासी यादव समुदाय का संहार हो चुका है और उनके प्रिय भगवान श्रीकृष्ण भी विलीन हो गए हैं।इसके बाद, पांडव अपने जीवन के अंतिम यात्रा पर निकलते हैं और वे हिमालय पर्वत के किनारे जाते हैं। वहाँ पर वे अपने शरीरों को छोड़ देते हैं और अपने दिव्य रूप में स्वर्ग में पहुंचते हैं, जहाँ परमपिता ब्रह्मा के साथ श्रीकृष्ण भी उनका स्वागत करते हैं।पांडवों का स्वर्गगमन महाभारत के अंत में उनके धर्म और नैतिकता की प्रमोट करने के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश देता है और वे अपने जीवन में धर्म का पालन करके उन्होंने स्वर्ग की प्राप्ति की।

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