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जीवन-परिचय –
अमर कवि केदारनाथ अग्रवाल का जन्म बाँदा की धरती में कमासिन गाँव में 1 अप्रैल, 1911 ई० को हुआ था। इनकी माँ का नाम घसिट्टो एवं पिता हनुमान प्रसाद थे, जो बहुत ही रसिक प्रवृत्ति के थे। रामलीला में अभिनय करने के साथ ब्रजभाषा में कविता भी लिखते थे।
केदार बाबू ने काव्य के संस्कार अपने पिता से ही ग्रहण किये थे। कक्षा तीन पढ़ने के बाद रायबरेली पढ़ने के लिए भेजे गये, जहाँ उनके बाबा के भाई गया बाबा रहते थे। केदार बाबू की शुरुआती शिक्षा अपने गाँव कमासिन में ही हुई।
छठी कक्षा तक रायबरेली में शिक्षा पाकर, सातवीं-आठवीं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कटनी एवं जबलपुर भेजे गये, वह सातवीं में पढ़ ही रहे थे कि नैनी (प्रयागराज) में एक धनी परिवार की लड़की पार्वती देवी से विवाह हो गया, जिसे उन्होंने पत्नी के रूप में नहीं प्रेमिका के रूप में लिया गया, ब्याह में युवती लाने/प्रेम ब्याह कर संग में लाया।
विवाह के बाद उनकी शिक्षा इलाहाबाद में हुई। इण्टर की पढ़ाई पूरी करने के बाद केदार बाबू ने बी०ए० की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। नवीं में पढ़ने के लिए उन्होंने क्रिश्चियन कालेज में दाखिला लिया। यहाँ उनका सम्पर्क शमशेर और नरेन्द्र शर्मा से हुआ। घनिष्ठता बढ़ी।
उनके काव्य संस्कारों में एक नया मोड़ आया साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता बढ़ी। फलतः वह बी0ए0 में फेल हो गये। इसके बाद वकालत पढ़ने कानपुर आये। यहाँ डी०ए०वी० कालेज में दाखिला लिया। सन् 1937 में कानपुर से वकालत पास करने के बाद सन् 1938 में बाँदा आये। उनके साथ रहकर वकालत करने लगे।
वकालत केदार जी के लिए कभी पैसा कमाने का जरिया नहीं रही। इस समय उनके चाचा बाबू मुकुन्द लाल शहर के नामी वकीलों में से थे। कचहरी ने उनके दृष्टिकोण को मार्क्स के दर्शन के प्रति और आधारभूत दृढ़ता प्रदान की। सन् 1963 से 1970 तक सरकारी वकील रहे।
सन् 1972 ई० में बाँदा में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन का आयोजन किया। सन् 1973 ई0 में उनके काव्य संकलन, ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ के लिए उन्हें ‘सोवियत लैण्ड नेहरू’ सम्मान दिया गया। 1981 ई० में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने उनके कृतित्व के मूल्यांकन के लिए ‘महत्त्व केदारनाथ अग्रवाल’ का आयोजन किया।
1974 ई0 में उन्होंने रूस की यात्रा सम्पन्न की। 1981 ई० में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने पुरस्कृत एवं सम्मानित किया। 1987 ई० में ‘साहित्य अकादमी’ ने उन्हें उनके ‘अपूर्वा’ काव्य संकलन के लिए अकादमी सम्मान से सम्मानित किया। वर्ष 1990-91 ई० में मध्य प्रदेश शासन ने उन्हें मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया।
वर्ष 1986 ई0 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् द्वारा ‘तुलसी सम्मान’ से सम्मानित किया गया। वर्ष 1993-94 ई0 में उन्हें ‘बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय ने डी० लिट्0 की उपाधि प्रदान की और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने ‘साहित्य वाचस्पति’ उपाधि से सम्मानित किया। 22 जून, 2000 ई0 को केदारनाथ अग्रवाल का 90 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया।
- जन्म- 1 अप्रैल, सन् 1911 ई०।
- मृत्यु- 22 जून, सन् 2000 ई०।
- पिता- श्री हनुमान प्रसाद।
- जन्म स्थान- बाँदा (कमासिन गाँव)।
- भाषा-सरल- सहज, सीधी-ठेठ।
साहित्यिक सेवाएँ-
केदारनाथ अग्रवाल हिन्दी प्रगतिशील कविता के अन्तिम रूप से गौरवपूर्ण स्तम्भ थे। ग्रामीण परिवेश और लोकजीवन को सशक्त वाणी प्रदान करने वाले कवियों में केदारनाथ अग्रवाल विशिष्ट हैं। अग्रवाल जी प्रज्ञा और व्यक्तित्व बोध को महत्त्व देने वाले प्रगतिशील सोच के अग्रणी कवि हैं।
परम्परागत प्रतीकों को नया अर्थ सन्दर्भ देकर केदार जी ने वास्तुतत्त्व एवं रूपतत्त्व दोनों में नयेपन के आग्रह को स्थापित किया है। समग्रतः केदारनाथ अग्रवाल सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं, प्रगतिशील चेतना और सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर कवि हैं।
संवेदनशील होकर कला के प्रति बिना आग्रह रखे वे काव्य की जनवादी चेतना से जुड़े हैं। ‘युग की गंगा’ में वे लिखते हैं ‘अलंकार’ की इच्छुक न “अब हिन्दी की कविता रस की प्यासी है, और न संगीत की तुकान्त की भूखी है।
” इन तीनों से मुक्त काव्य का प्रणयन करनेवाले केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में रस अलंकार और संगीतात्मकता के साथ प्रवहमान है और भावबोध एवं गहन संवेदना उनके काव्य की अन्यतम विशेषता है।
रचनाएँ-
नींद के बादल (1947),युग की गंगा (1947), लोक और आलोक (1957), फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965), देश-देश की कविताएँ, अनुवाद (1970),आग का आईना (1970), गुल मेंहदी (1978), पंख और पतवार (1979), हे मेरी तुम (1981), मार प्यार की थापें (1981), कहे केदार खरी-खरी (1983), अपूर्वा (1984),
बोले बोल अबोल (1985), जो शिलाएँ तोड़ते हैं (1985), जमुन जल तुम (1984), बम्बई का रक्त स्नान (1983), अनिहारी हरियाली (1990), खुली आँखें खुले डैने (1992), पुष्पदीप (1994), वसन्त में हुई प्रसन्न पृथ्वी (1996),आत्मगन्ध (1986), कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह (1997), चेता नैया खेता (नयी कविताओं का संग्रह, परिमल प्रकाशन, प्रयागराज)।
गद्य साहित्य –
विचार बोध (1980), विवेक-विवेचन (1980),समय-समय पर (1970), यात्रा संस्मरण-बस्ती खिले गुलाबों की (1974), दतिया (उपन्यास) (1985), बैल बाजी मार ले गये (अधूरा उपन्यास) जो साक्षात्कार मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् की पत्रिका में प्रकाशित।
भाषा-शैली –
प्रगतिवादी काव्य में जनसाधारण की चेतना को स्वर मिला है, अतः उसमें एक सरसता विद्यमान है। प्रायः सभी कवियों ने काव्य-भाषा के रूप में जनप्रचलित भाषा को ही प्रगतिवादी काव्य में अपनाया है परन्तु केदार कुछ मामलों में अन्य कवियों से विशिष्ट हैं।
उनकी काव्य-भाषा में जहाँ एक ओर गाँव की सीधी-ठेठ शब्दावली जुड़ गयी है, वहीं प्राकृतिक दृश्यों की प्रमुखता के कारण भाषा में मसृणता और कोमलता है। छायावादी काव्य की भाँति उसमें दूरारूद, कल्पना की उड़ान नहीं है।
वन फूलों की महक, गँवई भाषा,गाँव की गन्ध, सरल जीवन और आसपास के परिवेश को मिलाकर केदारनाथ अग्रवाल ने कविता को प्रगतिशील बौद्धिक चेतना से जोड़े रखकर भी मोहकता बनाये रखी है।
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