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संस्कृत व्याकरण का इतिहास – grammar of sanskrit

संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत व्याकरण का इतिहास बहुत प्राचीन है और यह भारतीय भाषाओं के व्याकरणिक ग्रंथों के माध्यम से ज्ञात होता है। संस्कृत व्याकरण का इतिहास निम्नलिखित प्रमुख युगों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. वैदिक युग (1500 ईसा पूर्व – 500 ईसा पूर्व): संस्कृत व्याकरण का प्रारंभ वैदिक साहित्य के साथ हुआ, जिसमें वेदों के मंत्रों का संग्रहण होता है। यह युग वेद भाषा के विकास का समय था और व्याकरणिक नियमों का प्रारूप बनाया गया।
  2. पाणिनि का काल (4थी शती ईसा पूर्व): महाभाष्यकार पाणिनि के समय संस्कृत व्याकरण के नियमों की व्यापक और व्यावसायिक रूप में विवरण किया गया था। पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ को संस्कृत व्याकरण के महत्वपूर्ण कृतियों में से एक माना जाता है, और इसके नियम आज भी उपयोग में हैं।
  3. मध्यकाल (500 ईसा पूर्व – 1500 ईसा पूर्व): इस युग में व्याकरण और साहित्य विकसित हुआ और विभिन्न स्कूलों के व्याकरणिक ग्रंथ लिखे गए, जैसे कि ‘अस्ताध्यायी’ के बाद ‘कात्यायन शब्दानुशासन’ और ‘पतञ्जलि महाभाष्य’।
  4. आधुनिक काल (1500 ईसा पूर्व – वर्तमान): इस युग में संस्कृत व्याकरण अध्ययन और शिक्षा के लिए अधिक व्यापक रूप से प्रयुक्त हो रहा है। आधुनिक संस्कृत व्याकरण ग्रंथों ने इस भाषा के नियमों को समझाने और सीखने में मदद की हैं।

यह इतिहास कुछ हाल के समय तक की जानकारी का संक्षिप्त आदान-प्रदान है, और संस्कृत व्याकरण का इतिहास और भी विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है। यह भाषा और उसके व्याकरण के प्रत्येक युग में विकसित हुई है और उसका अध्ययन आज भी महत्वपूर्ण है, विशेषकर संस्कृत साहित्य और धर्म के अध्ययन के संदर्भ में।

पाणिनीय व्याकरण

पाणिनीय व्याकरण, जिसे “अष्टाध्यायी” भी कहा जाता है, पाणिनि नामक भारतीय व्याकरणकार द्वारा लिखा गया एक प्राचीन संस्कृत व्याकरण का प्रमुख ग्रंथ है। पाणिनि का अष्टाध्यायी, संस्कृत भाषा के व्याकरण के बहुत ही सटीक और विस्तारपूर्ण स्रोत के रूप में माना जाता है और यह व्याकरण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कार्य है।

यहाँ कुछ मुख्य बिंदुओं पर चर्चा की जा रही है जो पाणिनीय व्याकरण को विशेष बनाते हैं:

  1. अष्टाध्यायी की संरचना: अष्टाध्यायी में व्याकरण के नियमों को बहुत ही व्यापक और व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रंथ आठ अध्यायों में विभाजित है और प्रत्येक अध्याय कई पादों (सूत्रों) में विभाजित होता है, जो विभिन्न पहलुओं और विधियों को विस्तार से वर्णन करते हैं।
  2. सूत्र विधान: पाणिनि के सूत्र (पाद) छोटे और संक्षेप रूप में लिखे गए हैं, लेकिन वे बहुत ही प्रक्रियाशील और परिपूर्ण होते हैं। इन सूत्रों में व्याकरण के नियम, उनके उदाहरण, और उनके अनुपालन की विस्तारित जानकारी होती है।
  3. संज्ञा, क्रिया, विशेषण, विबक्ति: पाणिनि अष्टाध्यायी में भाषा के विभिन्न पहलुओं को समझाते हैं, जैसे कि संज्ञाओं के प्रकार, क्रियाओं के प्रकार, विशेषणों की प्रकृति, और विभक्तियों की विवरण।
  4. वाक्य निर्माण: पाणिनि वाक्य निर्माण के नियमों को भी विस्तार से बताते हैं, जिससे संस्कृत वाक्यों का उच्च स्तर का ग्रामरटिकल संरचना होता है।
  5. धातुपाठ: पाणिनि ने संस्कृत में उपयोग होने वाले धातुओं के सूची (धातुपाठ) को भी प्रस्तुत किया है, जिससे शब्द रचना और व्याकरण के नियमों का अध्ययन सुगम होता है।

पाणिनि का अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरण के मूल स्त्रोत के रूप में माना जाता है और यह भाषा के सही और सुव्यवस्थित उपयोग की बुनाई में मदद करता है। इसके नियम आज भी संस्कृत व्याकरण के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है

अ-पाणिनीय व्याकरण

अ-पाणिनीय व्याकरण एक व्याकरण प्रणाली का नाम है जो पाणिनीय व्याकरण के विपरीत है। पाणिनीय व्याकरण, जिसे पाणिनि के अष्टाध्यायी नामक ग्रंथ के आधार पर विकसित किया गया, संस्कृत भाषा के व्याकरण के बहुत ही सटीक और सूक्ष्म नियमों का पालन करता है।

अ-पाणिनीय व्याकरण का उपयोग पाणिनी के नियमों के विरुद्ध व्याकरण प्रणालियों के लिए होता है, या ऐसे संस्कृत व्याकरण के लिए जिनमें पाणिनी के नियमों का पालन नहीं किया जाता है।

अ-पाणिनीय व्याकरण के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:

  1. वैयाकरणिक सूत्र: अ-पाणिनीय व्याकरण प्रणालियों में व्याकरणिक सूत्रों का आधार बनाया जाता है, जो पाणिनी के सूत्रों से विचलित होते हैं। इन सूत्रों में विभिन्न भाषाओं और ग्रंथों के व्याकरण के नियम प्रस्तुत किए जाते हैं।
  2. प्राकृत व्याकरण: प्राकृत, जैसे अर्धमागधी, पैशाची, और शौरसेनी, पर पाणिनी के नियमों का पूरा पालन नहीं करते हैं, इसलिए इन भाषाओं के व्याकरण को अ-पाणिनीय व्याकरण के अंदर शामिल किया जाता है।
  3. महाभाष्य: पतञ्जलि के “महाभाष्य” ग्रंथ में भी पाणिनी के व्याकरण के नियमों के खिलाफ व्याकरणिक विचार प्रस्तुत किए जाते हैं, और यह भी अ-पाणिनीय व्याकरण का उदाहरण हो सकता है।

इस प्रकार, अ-पाणिनीय व्याकरण विभिन्न भाषाओं और ग्रंथों के व्याकरण के नियमों के बारे में होता है, जो पाणिनी के नियमों के खिलाफ होते हैं या उनके अनुसार नहीं होते हैं। यह विशेषकर संस्कृत के बाहरी भाषाओं के व्याकरण के अध्ययन के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है।

गणपाठ एवं धातुपाठ

गणपाठ और धातुपाठ, दोनों ही पाणिनीय व्याकरण के महत्वपूर्ण भाग हैं और व्याकरण के अध्ययन में महत्वपूर्ण होते हैं:

  1. गणपाठ (Ganapatha): गणपाठ पाणिनीय व्याकरण के एक विशेष भाग को संदर्भित करने का एक तरीका है। इसमें विशिष्ट गण या समूह के शब्दों का संग्रहण किया जाता है। ये गण विशेष आर्थिक या व्याकरणिक निरूपण के लिए उपयोग किए जाते हैं। गणपाठ में विशिष्ट गणों के लिए नियम और उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं, जो पाणिनी के नियमों के साथ मेल करते हैं।
  2. धातुपाठ (Dhatupatha): धातुपाठ में संस्कृत भाषा के धातुओं का संग्रहण किया जाता है। धातुओं का यह सूची व्याकरण के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि ये धातुएँ विभिन्न शब्दों के रूपांतरण के लिए आवश्यक होती हैं। धातुपाठ के माध्यम से धातुओं का शब्दरूप, गण, और अर्थ जानकार शब्द रचना में सहायक होते हैं।

धातुपाठ के कुछ महत्वपूर्ण धातुओं के उदाहरण:

  • अस् (as): इस धातु का अर्थ होता है “बनना” या “होना”। इससे कई शब्द बनते हैं, जैसे “भवति” (होता है), “अस्मि” (मैं हूँ) आदि।
  • गम् (gam): इस धातु का अर्थ होता है “जाना”। इससे शब्द जैसे “गच्छामि” (मैं जाता हूँ), “आगत्य” (आने के बाद) आदि बनते हैं।
  • खद् (khad): इस धातु का अर्थ होता है “खाना”। इससे शब्द जैसे “खादति” (वह खाता है), “खाद्य” (खाने योग्य) आदि बनते हैं।

धातुपाठ और गणपाठ व्याकरण के अध्ययन के साथ संस्कृत भाषा के गहरे प्रतिपादनों को समझने में मदद करते हैं और व्याकरण के नियमों का अध्ययन करने के लिए महत्वपूर्ण उपकरण होते हैं।

संस्कृत व्याकरण का दार्शनिक विवेचन

संस्कृत व्याकरण का दार्शनिक विवेचन, संस्कृत भाषा और व्याकरण के विविध पहलुओं को दार्शनिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास है, और इसमें भाषाओं, शब्दों, और भाषा के ग्रामरटिकल नियमों के गहरे अर्थ की खोज की जाती है।

यहाँ कुछ मुख्य दार्शनिक दृष्टिकोण और संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक विवेचन के पहलुओं का विवरण है:

  1. पाणिनि का कार्य: पाणिनि को संस्कृत व्याकरण के पिता के रूप में माना जाता है, और उनका कार्य व्याकरण की व्यवस्था और सिद्धांत का प्रमुख स्रोत है। पाणिनि के अष्टाध्यायी ग्रंथ में व्याकरण के नियमों की अत्यंत सुव्यवस्थित और यथार्थ रूप से विवेचन किया जाता है।
  2. भाषा के दार्शनिक पहलु: संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक दृष्टिकोण में भाषा को एक महत्वपूर्ण भौतिक प्राणी के रूप में देखा जाता है जिसमें अनेक विभिन्न शक्तियाँ होती हैं जो व्यक्ति के विचार और अभिव्यक्ति को प्रकट करती हैं।
  3. शब्द का महत्व: संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक दृष्टिकोण से शब्द का महत्व बहुत अधिक होता है। शब्द को ब्रह्म (ब्रह्मन) के समान माना जाता है और इसका महत्व वेदांतिक दर्शन में भी होता है।
  4. व्याकरण और ध्यान: कुछ दार्शनिक स्कूल व्याकरण को ध्यान और मेधा के एक माध्यम के रूप में देखते हैं, जिसका उद्देश्य मानसिक शुद्धि और आत्मा के संयम में मदद करना होता है। व्याकरण के नियमों का अध्ययन और अनुसरण ध्यान के अभ्यास में मदद करता है।
  5. व्याकरण और भाषा परिदृष्य: संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक पहलु भाषा और साहित्य के साथ जुड़े हुए हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि भाषा और व्याकरण कैसे मानव विचार और भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम हो सकते हैं।

संस्कृत व्याकरण का दार्शनिक विवेचन विचारशीलता, भाषाशास्त्र, और विचार की गहरी धारणा के साथ जुड़ा होता है और यह व्यक्तिगत और धार्मिक दृष्टिकोणों के साथ व्याकरण के महत्व को समझने का प्रयास करता है।.

संस्कृत व्याकरण यूरोप के विद्वानों का योगदान

संस्कृत व्याकरण के अध्ययन और प्रशंसा ने यूरोप के विद्वानों को विभिन्न प्रकार के योगदान प्रदान किए हैं। यहाँ कुछ प्रमुख यूरोपीय विद्वानों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्होंने संस्कृत व्याकरण और संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया:

  1. विल्हेलम जॉन्सन (William Jones): भारत के संस्कृत और सांस्कृतिक धर्मों के प्रति उनकी प्रेम ने संस्कृत व्याकरण के प्रशंसकों को प्रेरित किया। उन्होंने संस्कृत को भाषाओं की मात्र भाषा नहीं, बल्कि सभी भाषाओं की मात्र भाषा के रूप में प्रस्तुत किया और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया।
  2. फ्रीड्रिच मैक्स म्यूलर (Friedrich Max Müller): मैक्स म्यूलर ने संस्कृत व्याकरण और संस्कृत साहित्य के प्रशंसकों को जोड़कर उन्हें विदेशी भाषा में संस्कृत का पठन करने का अवसर दिलाया। उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और भाषा के महत्व को बढ़ावा दिया।
  3. विल्हेल्म ग्रामर (Wilhelm von Humboldt): विल्हेल्म ग्रामर ने भाषा और भाषा का स्वरूप के विषय में महत्वपूर्ण दार्शनिक विचार दिए। उन्होंने भाषा को मानव विचार और समझने के साधना माध्यम के रूप में देखा और भाषा का महत्वपूर्ण योगदान किया।
  4. ओटो जॉनेस (Otto Jespersen): जॉनेस ने भाषा और व्याकरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया और उनकी किताब “The Philosophy of Grammar” व्याकरण के तात्त्विक पहलुओं को विचारशीलता के साथ दर्शाती है।

ये विद्वान और उनके काम संस्कृत व्याकरण और संस्कृत साहित्य के अध्ययन में महत्वपूर्ण हैं, और उन्होंने संस्कृत की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जो साहित्य, भाषा विज्ञान, और दर्शन के क्षेत्र में दिग्दर्शी और प्रेरणास्पद है।

संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ और उनके रचयिता

संस्कृत के व्याकरण ग्रंथ कई हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख ग्रंथ और उनके रचयिता निम्नलिखित हैं:

  1. अष्टाध्यायी (Ashtadhyayi) – पाणिनि: अष्टाध्यायी पाणिनि द्वारा रचित ग्रंथ है और यह संस्कृत व्याकरण का सबसे प्रमुख और सटीक ग्रंथ माना जाता है। पाणिनि को संस्कृत व्याकरण के पिता के रूप में माना जाता है, और उन्होंने संस्कृत व्याकरण के नियमों का सिद्धांतपूर्ण आधार रखा है।
  2. वैयाकरणसूत्र (Vyakarana Sutra) – पाणिनि: पाणिनि के अष्टाध्यायी के अलावा, उन्होंने अन्य ग्रंथों में भी व्याकरण सूत्र रचे हैं, जैसे “धातुपाठ,” “गणपाठ,” और “गोत्रपाठ”।
  3. सिद्धान्तकौमुदी (Siddhant Kaumudi) – भट्टोजी दीक्षित: भट्टोजी दीक्षित ने “सिद्धान्तकौमुदी” ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करता है और छायापणिनि के रूप में जाना जाता है।
  4. महाभाष्य (Mahabhashya) – पतञ्जलि: पतञ्जलि ने “महाभाष्य” ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के व्याकरणिक नियमों के बारे में विचार करता है और व्याकरण के सिद्धांतों को विस्तार से प्रस्तुत करता है।
  5. काशिका (Kashika) – हरदेव भट्ट: हरदेव भट्ट ने “काशिका” कहा जाने वाला ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों के अर्थ और उनके प्रायोजन के बारे में विवरण प्रदान करता है।
  6. चंद्रप्रभ (Chandraprabha) – काशीनाथ शास्त्री: काशीनाथ शास्त्री ने “चंद्रप्रभ” ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों के विवरण और व्याकरण के मुद्रण प्रक्रिया के बारे में है।

ये ग्रंथ और उनके रचयिता संस्कृत व्याकरण के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और संस्कृत व्याकरण के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ और उनके रचयिता

संस्कृत व्याकरण के कई ग्रंथ हैं और उनके कई रचयिता हैं, लेकिन निम्नलिखित कुछ मुख्य ग्रंथ और उनके रचयिता का उल्लेख यहाँ दिया गया है:

  1. अष्टाध्यायी (Ashtadhyayi) – पाणिनि: अष्टाध्यायी पाणिनि द्वारा रचित ग्रंथ है, और यह संस्कृत व्याकरण का मूल और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। पाणिनि को संस्कृत व्याकरण के पिता के रूप में माना जाता है।
  2. वैयाकरणसूत्र (Vyakarana Sutra) – पाणिनि: पाणिनि ने अष्टाध्यायी के अलावा अन्य ग्रंथों में भी व्याकरण सूत्र रचे हैं, जैसे “धातुपाठ,” “गणपाठ,” और “गोत्रपाठ”।
  3. सिद्धान्तकौमुदी (Siddhanta Kaumudi) – भट्टोजी दीक्षित: भट्टोजी दीक्षित ने “सिद्धान्तकौमुदी” ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करता है।
  4. महाभाष्य (Mahabhashya) – पतञ्जलि: पतञ्जलि ने “महाभाष्य” ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के व्याकरणिक नियमों के बारे में विचार करता है और व्याकरण के सिद्धांतों को विस्तार से प्रस्तुत करता है।
  5. काशिका (Kashika) – हरदेव भट्ट: हरदेव भट्ट ने “काशिका” कहा जाने वाला ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों के अर्थ और उनके प्रायोजन के बारे में विवरण प्रदान करता है।
  6. चंद्रप्रभ (Chandraprabha) – काशीनाथ शास्त्री: काशीनाथ शास्त्री ने “चंद्रप्रभ” ग्रंथ लिखा, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों के विवरण और व्याकरण के मुद्रण प्रक्रिया के बारे में है।
  7. प्राकृत-प्राकाश (Prakrit-Prakasha) – वररुचि: वररुचि ने “प्राकृत-प्राकाश” ग्रंथ लिखा, जो प्राकृत भाषा के व्याकरण को प्रस्तुत करता है।
  8. वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी (Vyakarana Siddhanta Kaumudi) – बलबद्रि: बलबद्रि ने “वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी” ग्रंथ लिखा, जो व्याकरण सिद्धांतों को विस्तार से व्याख्यान करता है।

ये ग्रंथ और उनके रचयिता संस्कृत व्याकरण के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं

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