दैव-दैव आलसी पुकारा अथवा परिश्रम का महत्त्व अथवा भाग्य एवं पुरुषार्थ अथवा आलस्य के दुष्परिणाम
रूपरेखा — 1. प्रस्तावना 2. सूक्ति की व्याख्या 3. परिश्रमी व्यक्तियों की महानता 4, परिश्रम से उपलब्धि 5. आलस्य से हानि 6. उपसंहार।

परिश्रम का महत्त्व पर निबंध – Essay on the Importance of Hard Work in Hindi
1. प्रस्तावना–विधाता ने दो प्रकार के जीवन उत्पन्न किए हैं। एक पशु-पक्षी और दूसरे मनुष्य हैं। दोनों में विवेक बुद्धि की मात्रा का अन्तर है। पशु-पक्षियों में तात्कालिक बुद्धि होती है। जबकि मानव अपने बीते हुए कल के अनुभव भविष्य का निर्माण करता है। जीवित रहने के लिए दोनों को परिश्रम करना पड़ता है।
कार्य करने की क्षमता दोनों में है। कोई थोड़ा कार्य करके फल पाता है और किसी को लगातार कार्य करने की आवश्यकता होती है। दोनों प्रकार के जीवों को जीवन जीना है, तो परिश्रम की अनिवार्यता को स्वीकार करना होगा।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि ‘जयशंकर प्रसाद’ ने अपने महाकाव्य ‘कामायनी में लिखा है-
‘कर्म का भोग, भोग का कर्म,
यही जड़-चेतन का आनन्द ।’
संसार के सम्पूर्ण सुख, सम्पूर्ण भोग कर्म के ही परिणाम हैं। जन्म-जन्मान्तरों में विश्वास करने वाला भारतीय चिन्तन तो कर्मों को कई जन्मों से जोड़कर देखता है।
इस विश्व को कर्म-रहित तो वह कभी स्वीकार ही नहीं कर सकता है। इसी कारण हमारे यहाँ तीन प्रकार के कर्म बताए गए हैं- 1. संचित कर्म, 2. प्रारब्ध कर्म तथा 3. क्रियमाण कर्म। संचित कर्म वे होते हैं जो पूर्व कर्म जन्मों से व्यक्ति के कर्म कोषागार में एकत्र होते रहते हैं।
जब ये संचित कर्म योग में परिवर्तित हो जाते हैं या व्यक्ति इनका अच्छा बुरा फल भोगने लगता है तब ये प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त क्रियमाण कर्म वे हैं जो वर्तमान में या तो किए जा रहे होते हैं अथवा किए जाने वाले हैं।
2. सूक्ति की व्याख्या – प्रस्तुत सूक्ति गोस्वामी तुलसीदास की अमर कृति रामचरितमानस से उद्धृत है। भगवान राम-रावण से युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे। भारत और लंका के बीच पड़ने वाला समुद्र उनके मार्ग में बाधा उत्पन्न करता था।
उसे कैसे पार किया जाए. यह एक समस्या थी। राम ने समुद्र से मार्ग देने के लिए कई बार प्रार्थना की परन्तु समुद्र ने इस प्रार्थना पर कोई विचार नहीं किया। इसके उपरान्त लक्ष्मण ने क्रोध में भरकर राम से प्रार्थना की कि आप शक्ति का प्रयोग कीजिए। उस समय कहा गया है—
कायर मनु कर एक अघारा। दैव-दैव आलसी पुकारा ॥
वास्तव में यह सूक्ति सारगर्वित है। आलसी मनुष्य ही भाग्य अथवा देव का सहारा लेते हैं। वे स्वयं कोई काम नहीं करना चाहते और कार्य सम्पन्न होने पर भगवान को दोषी ठहराते हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवन दूसरों पर आश्रित रहता है।
परन्तु जो व्यक्ति अपने कर्म या शक्ति में विश्वास रखते हैं, विजयश्री स्वयं आकर उनके चरण चूमती है। क्योंकि आलस्य मानव की प्रगति में बाधक है जो उनकी समस्त प्रगतियों पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देता है। जैसा किसी विद्वान ने कहा है-
“आलस्यं हिमनुस्याणां शरीस्य महान रिपु ।”
3. परिश्रमी व्यक्तियों की महानता—विभिन्न शास्त्र – पुराण एक स्वर से स्वीकार करते हैं। परिश्रम के बिना न तो कोई कोई कार्य और न ही कोई मनोरथ सिद्ध होता है। बिना हाथ हिलाए तो रोटी भी मुँह में नहीं जाती।
आइन्स्टीन, सो० वी० रमन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, सुनील गावस्कर, अमर्त्य सेन जैसे अनेक व्यक्तियों ने परिश्रम करके ही इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की है और इतनी ऊँचाइयों को छूकर अपने लक्ष्य को सिद्धि की है। सच तो यह है कि जीवन की साधारण आवश्यकताओं पूर्ति से लेकर बड़े-बड़े कार्य बिना परिश्रम के सम्भव नहीं हैं। काम न करने वाले व्यक्ति एक दोहा प्रस्तुत करते हैं-
अजगर करे न चाकरी, पंक्षी न करे काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥
इस दोहे में छिपे विश्वास का तो उल्लेख नहीं किया जाता, क्योंकि यह बात वही कह सकता है जिसका परमात्मा पर अटूट विश्वास हो। इसके विपरीत परिश्रम न करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की बात करने वाले दोहे को डाल की तरह प्रयोग करते हैं।
4. परिश्रम से उपलब्धि- जीवन में उद्यम और परिश्रम परम आवश्यक है। बगैर परिश्रम किए किसी प्रकार की उन्नति या कार्य सिद्धि दुष्कर ही नहीं असम्भव है। पंचतन्त्र में कहा गया है कि सारे कार्य उद्यम के द्वारा सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में जंगली पशु अपने आप प्रवेश नहीं कर जाते। इसके लिए सिंह को उद्यम करना पड़ता है; जैसे कि कहा गया है-
“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
परिश्रमी व्यक्ति साहित्य, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करता है। निर्धन परिवार में जन्म लेकर परिश्रम के बल पर उच्च शिक्षा पाता है और तब धन-वैभव की वर्षा उसके घर में होने लगती है। इस प्रकार सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की कृपा उस पर होती है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति से रोग बहुत दूर भागते हैं।
उसका शरीर स्वस्थ रहता है। बड़े-बड़े शारीरिक कार्य को वह सहजता से कर पाने में सक्षम होता है। “आराम हराम है” उसके जीवन का नारा बनता. है। शरीर के साथ उसे मानसिक शक्ति और सन्तोष भी मिलता है।
5. आलस्य से हानि– आलस्य से मानव जीवन में अनेक हानियाँ हैं। आलस्य मनुष्य को निकम्मा बना देता है। कभी भी जीवन को सफल नहीं होने देता। आलसी विद्यार्थी परीक्षा में उत्तण नहीं हो पाता, वह पढ़ने से भयभीत रहता है। गृहस्थ व्यक्ति के लिए आलस्य विष के समान है। उसके आलस्य करने पर सारा परिवार भूखों मरने लगता है और उसका सारा जीवन निर्वाह कठिन हो जाएगा।
आलस्य उसके आचार-विचार को परिवर्तित कर उसकी भावनाओं को कलुखि कर देता है। उसकी दृष्टि दूसरे गुणों की अपेक्षा अवगुणों पर अधिक लगी रहती है। स्वयं तो वह कुछ प्रगति नहीं कर सकता, पर दूसरों की आलोचना को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है। वह सदैव अपनी स्वार्थ सिद्धि में रत रहता है।
आलसी व्यक्ति झूठ बोलना, चोरी करना, दूसरों की वस्तु पर दृष्टि रखना आदि कार्यों में उद्यत रहता है। आलसी व्यक्ति संसार का सबसे बड़ा कायर व्यक्ति होता है। वह आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे हटता है। आलस्य उसकी उन्नति एवं प्रगति को रोक देता है। उसमें आत्मनिर्भरता की शक्ति नहीं रहती है।
आलस्य वह रोग है जो कभी सही नहीं होता। वास्तव में आलस्य को अपना एक मात्र शत्रु समझने वाला कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति के समय और परिस्थिति को अपने अनुकूल बना देता है। आलस्य, दरिद्रता सभी अवगुणों की जड़ है।
6. उपसंहार – संसार में कर्म को प्रधान माना गया है। इस सम्बन्ध में गोस्वामी जी ने कहा है कि–’कर्म प्रधान रूचि राखा।’ गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोगी का उपदेश दिया है। कर्म करना मनुष्य का पुनीत कर्त्तव्य है। कर्म के आभाव में वह समाज और देश का कल्याण नहीं कर सकता।
अतः प्रत्येक व्यक्ति को पुरुषार्थ करना चाहिए। इसी में सबका कल्याण निहित है। हम कह सकते हैं कि परिश्रम में ही जीवन का सुख है। यही जीवन का मूल तत्व है । छोटी-सी चींटी का उदाहरण का प्रसंग अनुपयुक्त नहीं होगा। वह चीनी का एक-एक दाना लाकर एकत्रित करती है।
बार-बार ऊपर चढ़ती है फिर नीचे गिर जाती है पर थकती नहीं, परिश्रम करके अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती है। मनुष्य में शक्ति भी है और विवेक भी। उसे यह बात अच्छी प्रकार समझ लेनी चाहिए कि परिश्रम ही जीवन में सफलता की कुंजी है।
अन्त में निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हमें आलस्य त्यागकर कर्म में संलग्न हो जाना चाहिए, भाग्य के भरोसे बैठकर हम प्रगति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकते। आलसी व्यक्ति ही भाग्य को पुकारते हैं, कर्मयोगी व्यक्ति तो अपने कर्म के माध्यम से भाग्य को भी परिवर्तित कर देते हैं।