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राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबन्ध – Essay on Rashtrabhasha Hindi

राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा राष्ट्रभाषा का महत्त्व अथवा राष्ट्रभाषा की समस्या अथवा हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों? अथवा राष्ट्रभाषा और उसकी समस्याएँ अथवा राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का योगदान

रूपरेखा – 1. प्रस्तावना 2. राष्ट्रभाषा से तात्पर्य 3. राष्ट्रभाषा की आवश्यकता 4. राष्ट्रभाषा की समस्या 5. राष्ट्र भाषा के रूप में हिन्दी की मान्यता 6. हिन्दी के विकास में बाधाएँ 7. भारतीय भाषाएँ 8. उपसंहार ।

Essay on Rashtrabhasha Hindi
राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबन्ध – Essay on Rashtrabhasha Hindi

प्रस्तावना – जब मैं पक्षियों को कूजते हुए, सिहों को दहाड़ते हुए, हाथियों को चिंघाड़ते हुए, कुत्तों को भौंकते हुए और घोड़ों को हिनहिनाते हुए सुनता हूँ तो अचानक मुझे ख्याल आता है कि ये सब अपनी भाषा में कुछ कहना चाहते हैं, बातचीत करना चाहते हैं। वे अपने प्रेम, क्रोध, घृणा व ईर्ष्या के भावों को अभिव्यक्त करना चाहते हैं, किन्तु मैं इनकी भावनाओं को अच्छी तरह समझ नहीं पाता।

मैं तभी सोचने लगता हूँ कि मानव कितना महान है कि उसे अपनी बात कहने के लिए भाषा का वरदान मिला है। प्रत्येक मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति किसी न किसी भाषा के माध्यम से करता है। भाषा के अभाव में न तो किसी सामाजिक परिवेश की कल्पना की जा सकती है और न ही सामाजिक व राष्ट्रीय प्रगति की। साहित्य, विज्ञान, कला, दर्शन आदि सभी का आधार भाषा ही है। किसी भी देश के निवासियों में राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास और पारस्परिक सम्पर्क के लिए एक ऐसी अवश्य होनी चाहिए, जिसका व्यवहार राष्ट्रीय स्तर पर किया जा सके।

2. राष्ट्रभाषा से तात्पर्य – किसी भी देश में सबसे अधिक बोली एवं समझी जाने वाली भाषा ही वहाँ की राष्ट्रभाषा होती है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक जातियों, धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं।

अतः राष्ट्रीय एकता को सृदृढ़ बनाने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग राष्ट्र के सभी नागरिक सकें तथा राष्ट्र के सभी सरकारी कार्य उसी के माध्यम से किए जा सकें। ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्रभाषा कही जाती है। दूसरे शब्दों में राष्ट्रभाषा से तात्पर्य है- किसी राष्ट्र की जनता की भाषा।

3. राष्ट्रभाषा की आवश्यकता – मनुष्य के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए भी राष्ट्रभाषा आवश्यक है। मनुष्य चाहे जितनी भी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसे अपनी भाषा की शरण लेनी पड़ती है। इससे उसे मानसिक सन्तोष का अनुभव होता है।

इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। सरकारी कामकाज को केन्द्रीय भाषा के रूप में यदि एक भाषा स्वीकृत न होगी, तो प्रशासन में नित्य ही व्यावहारिक कठिनाइयाँ आएँगी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी राष्ट्र की निजी भाषा का होना गौरव की बात होती है।

4. राष्ट्रभाषा की समस्या – स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ विकराल रूप लिए थीं। उन समस्याओं में राष्ट्रभाषा की समस्या भी थी। कानून द्वारा भी इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत एक विशाल देश है और इसमें अनेक भाषाओं को बोलने वाले व्यक्ति निवास करते हैं।

अतः किसी न किसी स्थान से कोई न कोई विरोध राष्ट्रभाषा के राष्ट्रस्तरीय प्रसार में बाधा उत्पन्न करता रहा है। अपने देशवासियों के कारण भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या सबसे जटिल समस्या बन गई है।

5. राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की मान्यता – संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाए जाए? प्राचीनकाल में राष्ट्र की भाषा संस्कृत थी। धीरे-धीरे अन्य प्रांतीय भाषाओं की उन्नति हुई और संस्कृत ने अपनी पूर्व-स्थिति को खो दिया। मुगलकाल में उर्दू का विकास हुआ।

अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी ही सम्पूर्ण देश की भाषा बनी। अंग्रेजी हमारे जीवन में इतनी बस गई कि अंग्रेजी शासन के समाप्त हो जाने के पर भी देश से अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी के प्रभावस्वरूप भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देने पर भी उसका समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है।

यद्यपि हिन्दी एवं अहिन्दी भाषा के अनेक विद्वानों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन किया है, तथापि आज भी हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका।

6. हिन्दी के विकास में बाधाएँ — स्वतन्त्र भारत के संविधान में हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर दिया गया, परन्तु आज भी देश के अनेक प्रान्तों ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया है।

हिन्दी संसार की सबसे अधिक सरल, मधुर एवं वैज्ञानिक भाषा है, फिर भी हिन्दी का विरोध जारी है। हिन्दी की प्रगति और इसके विकास की भावना का स्वतन्त्र भारत में अभाव है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की प्रगति के लिए केवल सरकारी प्रयास ही नहीं पर्याप्त नहीं होंगे, वरन् इसके लिए जन-जन का सहयोग आवश्यक है।

7. भारतीय भाषाएँ – भारत विविधता में एकता का साधक रहा है। इस देश में पन्द्रह के लगभग प्रमुख प्रादेशिक एवं व्यवहारगत भाषाएँ हैं, इनमें आदिवासी एवं केन्द्रशासित प्रदेशों की भाषाएँ सम्मिलित नहीं हैं। हिन्दी, तमिल, तेलगु, गुजराती, पंजाबी, कश्मीरी, बंगला, उड़िया, असमी, मलयालम, कन्नड़, मराठी, सिन्धी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाएँ शासन द्वारा उत्पन्न भाषाएँ हैं।

प्रादेशिक स्तर पर इनका व्यवहार सर्वथा उचित है। प्रत्येक प्रदेश के बालक को उसकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त होनी चाहिए। लेकिन सार्वदेशिक व्यवहार में इतनी भाषाओं से काम नहीं चल सकता | हिन्दी आज भारत के आधे से भी ज्यादा जन समूह की बोलचाल और व्यवहार की भाषा है । वह लगभग सम्पूर्ण देश में समझी और बोली जाती है।

8. उपसंहार – राष्ट्रभाषा हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। यदि हिन्दी विरोधी अपनी स्वार्थी भावनाओं को त्याग सके और हिन्दी भाषा धैर्य, सन्तोष और प्रेम से काम लें तो हिन्दी भाषा भारत के लिए समस्या न बनकर राष्ट्रीय जीवन का आदर्श बन जाएगी।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी’ ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में कहा था-‘ -“मैं हमेशा यह मानता रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रान्तीय भाषाओं को नुकसान पहुँचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रान्तों के पारस्परिक सम्बन्ध के लिए हम हिन्दी भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिन्दी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता।

हिन्दी को हम मानते हैं। वह राष्ट्रीय भाषा होने के लायक है। वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है, जिसे अधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और सीखने में सुगम हो ।

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