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जीवन में शिक्षा का महत्त्व पर निबंध – Essay on Education Importance in Hindi

रूपरेखा-1. प्रस्तावना 2. शिक्षा का महत्त्व 3. अशिक्षा से हानियाँ 4. हमारी शिक्षा व्यवस्था 5. साक्षरता और शिक्षा 6. उपसंहार।

Essay on Education Importance in Hindi
Essay on Education Importance in Hindi

1. प्रस्तावना – विद्या या ज्ञान ही मानवीय विकास का मेरूदण्ड रहा है। संस्कृत की ‘विद’ धातु का अर्थ होता है जानना या ज्ञान प्राप्त करना। वेद भी मानवीय ज्ञान के भण्डार हैं। ज्ञान अनुभव के तन्तुओं से ही मानव ने अपने संस्कृति पट को बुना है। निम्न श्लोक मानव जीवन में शिक्षा या ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित कर रहा है-

शत्रुः पिता बैरी, येन वालो न पाठितः ।
न शोभते सभा मध्ये, हंस मध्ये बको यथा ॥

यही कारण है कि मानव सभ्यता के अरुणोदय से ही विश्व में विद्या प्राप्ति के विविध साधन सम्पादित किए जाते रहे हैं। विद्या और सभ्यता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा है। जिस जाति ने जितना ही विद्या धन की सुरक्षा और संचार का सुप्रबन्ध किया, वह सभ्यता में उतनी ही शिखरगामी होती गई।

2. शिक्षा का महत्त्व – आज के जीवन में अशिक्षित मनुष्य का जीवन निर्वाह पग-पग पर कठिनाइयों से भरा हुआ है। व्यवसायी हो या धर्माचार्य, राजनीतिक हो या समाजसेवक, किसान हो या मजदूर, शिक्षा उसके जीवन को सार्थक बनाती है। शिक्षा से जीवन में प्रगति के नए द्वार उद्घाटित होते हैं। शिक्षा व्यक्ति में आत्मविश्वास जगाती है।

ज्ञान की जितनी विधाएँ हैं सभी शिक्षा पर आश्रित हैं। आज मनुष्य ने विज्ञान और कलाओं के क्षेत्र में जितनी प्रगति की है शिक्षा के बल पर की है। सच कहा जाए तो मानव सभ्यता के विकास का आधार शिक्षा ही है।

3. अशिक्षा से हानियाँ – आज निर्धन से निर्धन व्यक्ति चाहता है कि इसका बच्चा शिक्षित हो । इतिहास बताता है कि शिक्षितों ने अशिक्षितों का अपार शोषण किया है। शिक्षित साहूकारों ने श्रमिकों और किसानों से मनमाने ऋण-पत्रों पर अँगूठे लगवाए हैं और उनको पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी ब्याज के जाल में फँसाए रखा है।

शिक्षित व्यापारियों ने अशिक्षित उपभोक्ताओं के कुटिल शोषण से हवेलियाँ बनवाई हैं। शिक्षित धर्माचार्यों ने अशिक्षित जनसमुदाय को अन्धविश्वास और पाखण्डों के जाल में फँसाकर उनका तन-मन और धन लूटा है। अशिक्षित व्यक्ति को परालम्बी होना पड़ता है। अशिक्षित बहुएँ अपने व्यक्तिगत पत्र नहीं पढ़ पाती।

न पत्र लिखकर अपनी मनोव्यथा अपने प्रियजनों तक पहुँचा सकती हैं। अशिक्षित गृहिणियाँ अपने घर का हिसाब नहीं रख सकती हैं और न अपने बच्चों में सुसंस्कार डाल सकती हैं। आज पग-पग पर मनुष्य को शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है।

4. हमारी शिक्षा व्यवस्था – दुर्भाग्य से हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था अपर्याप्त और समयानुकूल नहीं है। नगरों में निवास करने वाले मुट्ठी भर समर्थ लोग ही अपने बच्चों को उचित शिक्षा दिलाने में सफल होते हैं। जन-सामान्य के लिए शिक्षा बहुत महँगी हो चुकी है।

ग्रामों में निवास करने वाला देश का अधिकांश ग्रामीण समुदाय प्राथमिक शिक्षा के लिए तरसता है। ग्रामीण महिलाओं के लिए आज तो उच्च शिक्षा के लिए शिक्षा सपना बनी हुई है।

आज ज्ञानवर्धन के लिए शिक्षा पाना कोई नहीं चाहता। शिक्षा को रोजगारपरक होना चाहिए। सरकार द्वारा स्थापित शिक्षा तंत्र के समान्तर जो शिक्षा संस्थाएँ चल रही हैं उनमें प्रवेश लेना और शुल्क दे पाना इस देश के सामान्य जन के बूते के बाहर की बात है। शिक्षा को विशुद्ध व्यवसाय बनाकर उसे जन साधारण की पहुँच से बाहर कर दिया गया है।

5. साक्षरता और शिक्षा – आजकल साक्षरता के प्रचार-प्रसार पर बहुत जोर दिया है। साक्षरता और शिक्षा में बहुत अन्तर है। केवल अक्षर ज्ञान करा देना आज के युग में कितना उपयोगी हो सकता है यह किसी से छिपा नहीं है। अंगूठा लगाना या जैसे-तैसे अष्टावक्र हस्ताक्षर बना देने से कोई अन्तर नहीं पड़ता है।

उनको शिक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता है उन्हीं के हिस्से में सबसे कम शिक्षा आती है। अपने परिवेश और संसार के विषय में न्यूनतम ज्ञान तो हर व्यक्ति को होना चाहिए। यह उद्देश्य साक्षरता से नहीं, शिक्षा से पूरा हो सकता है। कम से कम प्रारम्भिक शिक्ष तो देश के हर बालक को निःशुल्क प्राप्त होनी चाहिए।

6. उपसंहार – शिक्षा निर्माण की धुरी है। देश को उच्च कोटि के शिक्षक, वैज्ञानिक, तकनीशियन, विचारक, अर्थशास्त्री चाहिए। यह लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकता है जबकि शिक्षा पर उचित ध्यान दिया जाए। प्रतिभा किसी की बपौती नहीं होती।

शिक्षा द्वारा प्रतिभा पर धार रखी जाती है। अनेक प्रतिभाशाली लोग समाज के निर्धन वर्ग से आए हैं। अतः शिक्षा पर व्यय किया गया धन कभी घाटे का सौदा नहीं होता। हर एक को अपना पूर्ण परिवार को शिक्षित करना अत्यन्त आवश्यक है।

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