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अहिंसा परमो धर्म: पर निबंध – Essay on Ahinsa Parmo-dharmah in Hindi

अहिंसा परमोधर्म: अथवा जीवन में अहिंसा का महत्त्व

रूपरेखा — 1. प्रस्तावना 2. अहिंसा का महत्त्व 3. अहिंसा के सम्बन्ध में भ्रांति 4. अहिंसा प्रेम की चरम सीमा 5. उपसंहार ।

Essay on Ahinsa Parmo-dharmah in Hindi
Essay on Ahinsa Parmo-dharmah in Hindi

1. प्रस्तावना – अहिंसा शब्द में हिंसा को नकारने की अभिव्यक्ति है। मन, वचन और कर्म से प्राणी मात्र को हानि न पहुँचाना अहिंसा है। हानि अथवा कष्ट पहुँचाने का स्वरूप शारीरिक, वाचिक अथवा मानसिक भी होता है। मानव मन से दूसरों का अहित करने की बात सोचता है, वाणी द्वारा अन्य व्यक्तियों की निन्दा करता है तथा ऐसे कर्म करता है जो दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं।

ये सभी अहिंसा विरोधी है। व्यापक रूप में इन्हें हिंसा ही कहा जाएगा। कोश में हिंसा का अर्थ जीवों को मारने के साथ कष्ट और हानि पहुँचाना भी दिया जाता है। किन्तु आज बोलचाल में हिंसा केवल मारना ही है। स्वाभाविक है अहिंसा का अर्थ हिंसा का विपरीतार्थक है। हिंसा सीमित अभिव्यक्ति है जबकि हिंसा व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। कुछ व्यक्ति अहिंसा को विवशता का नाम देते हैं जबकि इसमें सकारात्मक विद्यमान है।

2. अहिंसा का महत्त्व – भारत के प्राचीन धर्म ग्रन्थों में ‘मनुस्मृति’ का अत्याधिक सम्मान है। इस ग्रन्थ में धर्म के दस लक्षणों का उल्लेख किया है, उनमें सबसे पहले अहिंसा का उल्लेख है। बौद्ध तथा जैन धर्म ग्रन्थों में अहिंसा मूलाधार है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय ‘महात्मा गाँधी’ के दो शस्त्र थे – एक सत्य और दूसरा अहिंसा।

जैन धर्म में तो यहाँ तक वर्णित है कि हम मन में किसी की हिंसा करने की बात सोचते भी हैं तो हम पाप के भागी होते हैं। महात्मा गाँधी ने भी कहा यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर चपत मारे तो तुम दूसरा गाल आगे कर दो।

किन्तु एक चिन्तक वर्ग ऐसा है जो अपनी बात इस रूप में कहता है—’क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो’ कवि दिनकर की ये पंक्तियाँ अहिंसा के महत्त्व को कुछ दूसरे रूप में प्रस्तुत करती है। तात्पर्य यह है कि अहिंसा उसी को शोभा देती है जिसके पास शक्ति हो ।

3. अहिंसा के सम्बन्ध में भ्रांति – अहिंसा मात्र व्यवहारिक नीति नहीं है, वह तो सिद्धान्त है, इसलिए परम धर्म कहा गया है। अहिंसा के विषय में बहुत बड़ी भ्रांति यह है कि कुछ विद्वान इसे कायरों का शस्त्र मानते हैं। जबकि इसके तथ्य इसके विपरीत हैं। अहिंसा को अपनाने वाला व्यक्ति कभी किसी से भयभीत नहीं होता।

वह न्यायोचित मार्ग का अनुसरण करता है। वर्तमान समय में महात्मा गाँधी इसके बहुत महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। उनके इसी शस्त्र ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया।

उनके अहिंसक आन्दोलन में इतनी शक्ति रही कि उस समय सारा राष्ट्र उनके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चले पड़ा। अहिंसा के प्रति उनकी निष्ठा इतनी ही अधिक थी कि इसी के बल पर विश्व में सम्मानित हुए।

4. अहिंसा प्रेम की चरम सीमा – अहिंसा को जीवन का आधार बनाने वाला व्यक्ति किसी की हानि नहीं कर सकता, किसी को कष्ट नहीं पहुँचा सकता। वह तो मानव मात्र की सेवा में अपने आपको न्यौछावर कर देता है और यही प्रेम की परम सीमा है। वह व्यक्ति शत्रु से भी प्रेम करता है, दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानता है।

इसका जीवन संयमित होता है, जिसमें लक्ष्य तो होता है किन्तु अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के त्याग की प्रवृत्ति भी होती है। भगवान में विश्वास करते हुए उसकी सुख-समृद्धि की कामना करता है। उसका दृढ़ विश्वास होता है कि मानव मात्र को बनाने वाला परमात्मा है तो दूसरे किसी मानव को किसी भी परिस्थिति में प्राणी मात्र को नष्ट करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार वह सात्विक जीवन का आदर्श बन जाता है।

5. उपसंहार— अस्तु, अहिंसा को स्वीकार करने वाला व्यक्ति सही अर्थ में मानव कहलाने का अधिकारी है। जहाँ हिंसा बुराइयों के गड्ढे में मनुष्य को धकेल देती है, वहीं अहिंसा इसे अच्छे गुणों से युक्त कर देती है। हिंसक सदैव दु:खी और अशांत रहता है किन्तु अहिंसक सुखी और शान्त होता है। यही कारण है कि अहिंसा जीवन का महत्त्वपूर्ण धर्म माना गया है। अन्य वस्तु के समान यह मानव मात्र के लिए सबसे अधिक अनुकरणीय वस्तु है।

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