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हिन्दी पद्य साहित्य का विकास – Development of Hindi Poetry

हिन्दी पद्य

हिन्दी साहित्य का आविर्भाव सर्वप्रथम काव्य (पद्य) से माना जाता है। विद्वानों ने हिन्दी पद्य के इतिहास को युग की विशेष प्रवृत्तियों (विशेषताओं) के ही आधार पर चार कालों में विभक्त किया है, जो इस प्रकार है

  • आदिकाल (वीरगाथा काल) — सन् 743 ई० से 1343 ई०।
  • पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल) — सन् 1343 ई० से 1643 ई०।
  • उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) — सन् 1643 ई० से 1843 ई०।
  • आधुनिक काल — सन् 1843 ई० से आज तक।
हिन्दी पद्य साहित्य का विकास
हिन्दी पद्य साहित्य का विकास

उत्तर मध्यकाल ( रीतिकाल) (सन् 1643 ई० से 1843 ई० तक)

16वीं-17वीं शताब्दी तक इस देश में मुगल साम्राज्य पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित और वैभव के शिखर पर था। अत: इसका प्रभाव साहित्य पर पड़ा, जो कृष्ण और राधा भक्ति के आलम्बन थे, वही अब शृंगार के आलम्बन बन गए। इसके अतिरिक्त एक और परिवर्तन आया जिसमें कवियों का ध्यान साहित्यशास्त्र की ओर गया और उन्होंने रस, छन्द, अलंकार, नायक-नायिका आदि को अपनी कविता में स्थान दिया। काव्य-रचना की इस विशेष रीति को ‘रीतिकाल’ कहा जाने लगा।

इस काल में रचे गए रीतिग्रन्थ प्राय: दो रूपों में मिलते हैं, एक अलंकारों पर तथा दूसरा रूप रसों पर था। इसमें केशव, भूषण, तथा राजा यशवन्त सिंह आदि अलंकारवादी आचार्य थे, तो मतिराम, देव, बिहारी, पद्माकर आदि रसवादी कवि भी थे।

इन्हीं रसवादी कवियों ने शृंगार रस को रसराज की पद्वी देते हुए इसके अन्तर्गत नायक-नायिकाओं के प्रेम को विस्तार से वर्णन किया। शृंगार के अतिरिक्त इस युग में भक्ति, नीति और वीर रस पूर्ण काव्यों की रचना की। गिरिधर एवं दीनदयाल गिरि आदि ने नीतिपरक रचनाएँ प्रस्तुत कीं तो भूषण, गोरेलाल, सूदन आदि ने वीर रस की कविताएँ प्रस्तुत कीं।

रीतिकाल के अधिकांश कवि राजाओं के आश्रय में रहते थे तथा इनकी रचनाओं में अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा पाई जाती है। इस युग के कवियों ने दोहा, मुक्तक, कवित्त, सवैया आदि छन्दों का प्रयोग किया है। इस काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं –

  1. (i) कवियों का दरबारी होना
  2. (ii) आश्रयदाताओं की प्रशंसा
  3. (iii) शृंगार रस की अधिकता
  4. (iv) प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण
  5. (v) कलापक्ष पर अधिक बल
  6. (vi) रीति ग्रन्थों का निर्माण
  7. (vii) चमत्कार-प्रदर्शन
  8. (viii) ब्रजभाषा की प्रतिष्ठा
  9. (ix) सवैया तथा दोहा छन्दों का सर्वाधिक प्रयोग।

रीतिकाल की साहित्यिक देन–इस युग की प्रमुख देन है कि ब्रजभाषा, काव्यभाषा के रूप में अधिक प्रतिष्ठित हुई। अर्थ गौरव, चमत्कार, लाक्षणिकता, भाव अभिव्यंजना आदि की दृष्टि से यह भाषा समर्थ भाषा बनी। घनानन्द की लाक्षणिकता तो अद्वितीय है। कवित्त, सवैया, दोहा तथा मुक्तक काव्य रचना के लिए सिद्ध छन्द बन गए।

इस काल के प्रसिद्ध कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नांकित हैं-

  1. केशवदास : रामचन्द्रिका, कविप्रिया ।
  2. भूषण : शिवराज भूषण, छत्रसाल शतक।
  3. मतिराम : रसराज, ललित-ललाम, सत्सई ।
  4. बिहारी : सत्सई ।
  5. पद्माकर : पद्माभरण, जगद्विनोद, गंगालहरी ।
  6. चिन्तामणि : रसविलास, शृंगार मंजरी।
  7. देव : भाव-विलास, प्रेमप्रसंग, अष्टयाम, देव चरित्र ।
  8. घनानन्द : सुजान-सागर, विरह लीला कोकसार, कृपा काण्ड ।
  9. यशवन्त सिंह : भाषा-भूषण।

रीतिकाल के कवि प्रायः राजाश्रय में रहते थे। इसलिए इनकी रचनाओं में अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति भी मिलती है।

आधुनिक काल (सन् 1843 ई० से आज तक)

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल अधिकतर विद्वानों ने संवत् 1900 वि० से माना है। इस काल के प्रमुख नाम – आधुनिक काल, गद्यकाल, नवीन विकास का काल, पुनर्जागरण काल आदि हैं। आधुनिक काल को निम्नलिखित पाँच उपखण्डों में विभाजित किया जा सकता
( क ) भारतेन्दु युग (ग) छायावादी युग (ख) द्विवेदी युग (घ) छायावादोत्तर युग (ङ) नई कविता

भारतेन्दु युग (सन् 1868 से 1903 ई० ) – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक साहित्य के जन्मदाता माने जाते हैं। रीतिकाल में कवियों का सम्बन्ध जन-जीवन से टूट चुका था। भारतेन्दु युग के कवियों ने इस सम्बन्ध को पुन: स्थापित कर के जनभावना को वाणी दी।

इस युग में खड़ी बोली गद्य की भाषा तो बन चुकी थी किन्तु काव्य के क्षेत्र में ब्रजभाषा की ही प्रधानता रही। गद्य के क्षेत्र में जहाँ नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध और आलोचना आदि का विकास हुआ वहाँ काव्य के क्षेत्र में स्वदेश-प्रेम, समाज सुधार, प्रकृति – चित्रण आदि विषयों का समावेश भी हुआ।

भारतेन्दु जी के अतिरिक्त इस युग के कवियों में बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ तथा अम्बिकादत्त व्यास प्रसिद्ध हैं। गद्य के क्षेत्र में स्वयं भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण, राधाचरण गोस्वामी, लाला सीताराम, जगमोहन सिंह आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

द्विवेदी युग ( सन् 1903 से 1916 ई० ) – आधुनिक काल का द्वितीय चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। द्विवेदी जी (महावीर प्रसाद) हिन्दी साहित्य के प्रौढ़ लेखक एवं परिमार्जक थे। ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इन्होंने कविता के क्षेत्र में युगान्तकारी कार्य किया। द्विवेदी जी की प्रेरणा पाकर अनेक युवा कवियों ने खड़ी बोली में काव्य-रचना प्रारम्भ की। इस युग में प्रबन्ध काव्य लिखने का श्री गणेश हुआ।

श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, मुकुटधर पाण्डेय, लोचन प्रसाद पाण्डेय, राम नरेश त्रिपाठी, रामचरित्र उपाध्याय, देवीप्रसाद पुंज, सिया रामशरण गुप्त, नाथूराम शर्मा, सत्यनारायण कविरत्न, जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ आदि कवियों ने खड़ी बोली में काव्य रचना की। खड़ी बोली को समृद्ध बनाने में द्विवेदी जी का अविस्मरणीय योगदान रहा है।

इस युग में ‘हरिऔध’ जी का प्रिय प्रवास तथा मैथिलीशरण गुप्त का साकेत आदि महाकाव्य लिखे गए। गुप्त जी ने अनेक खण्डकाव्यों (जयद्रथ वध) की भी रचना की। खड़ी बोली को समृद्ध और गतिशील बनाने का विशेष श्रेय श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को है, इसी कारण इस युग का नाम ‘द्विवेदी युग’ पड़ गया।

छायावादी युग (सन् 1916 से 1936 ई० ) – द्विवेदी युग के बाद छायावाद का युग आया। साहित्य का यह संक्रमण काल था। अंग्रेजों के अत्याचार, क्रूरता, अमानवीयता आदि तथा भारतीय समाज की विडम्बना से छायावाद का जन्म हुआ। वास्तव में छायावादी काव्य द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया थी।

जयशंकर प्रसाद जी को इस युग का प्रवर्तक माना जाता है। प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ तथा महादेवी वर्मा छायावाद के प्रमुख कवि हैं। इन्हें छायावाद के चार प्रमुख आधार स्तम्भ भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त डॉ० रामकुमार वर्मा, नवीन, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, अंचल, भगवतीचरण वर्मा आदि छायावाद के भी प्रसिद्ध कवि माने गए हैं।

छायावाद युग की प्रमुख प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)– इस युग की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

  1. शृंगार की प्रधानता
  2. प्रकृति का मानवीकरण
  3. कल्पना की प्रचुरता
  4. वेदना व निराशा का स्वर
  5. रहस्य-भावना की प्रधानता
  6. सौन्दर्य की प्रधानता
  7. देश-प्रेम की भावना
  8. व्यक्तिवाद की प्रधानता।

यह युग मुख्यतः मुक्तक गीतों का युग है। निराला तथा महादेवी के काव्य में गीत का सुन्दर विधान है। रामकुमार वर्मा जी के गीत भी विशेष लोकप्रिय हुए। खड़ी बोली को सँवारने, उसमें ब्रजभाषा जैसा लोच तथा सरलता लाने, उसकी शक्ति बढ़ाने का समस्त श्रेय इस युग को दिया गया है।

छायावादोत्तर युग–यह युग छायावाद के पश्चात् का युग है। इस काल के काव्य में सर्वहारा वर्ग को विशेष प्राथमिकता दी गई। इसमें जनचेतना के स्वर मुखरित हुए हैं। इसकी प्रमुख रूप से दो धाराएँ हैं—
(अ) प्रगतिवाद (ब) प्रयोगवाद।

(अ) प्रगतिवादी युग (सन् 1936 से 1943 ई०) – इस काल के साहित्य में यथार्थ जीवन को व्यापक महत्त्व दिया है। मानव-कल्याण को कविता का मूलाधार माना गया है। इस काल की प्रमुख विशेषताएँ हैं-

  1. विद्रोह व क्रान्ति के स्वर
  2. नारी का यथोचित सम्मान
  3. सामाजिक मूल्यों की स्थापना
  4. शोषक वर्ग के प्रति घृणा
  5. सामयिक समस्याओं का चित्रण
  6. कला के पक्ष में नवीनता
  7. मानवतावादी दृष्टिकोण
  8. प्राचीन परम्पराओं का विरोध।

प्रगतिवादी कवियों में पन्त, निराला, दिनकर, नरेन्द्र शर्मा, नवीन, अंचल, सुमन, नागार्जुन तथा केदारनाथ अग्रवाल प्रमुख हैं। प्रगतिवादी कवियों ने छन्द के बन्धन को अनिवार्य नहीं माना है।

(ब) प्रयोगवादी युग (सन् 1943 से 1953 ई०) – हिन्दी में प्रयोगवाद का जनक श्री अज्ञेय जी को माना जाता है। प्रथम तार सप्तक के प्रकाशन वर्ष सन् 1943 ई० से प्रयोगवाद का विकास प्रारम्भ किया गया। तार सप्तक में सप्त (सात) कवियों की रचनाएँ थीं। इन्हें अज्ञेय ने ‘राहों का अन्वेषी’ कहा था।

ये सात कवि थे—अज्ञेय, गजाननमाधव’ ‘मुक्तिबोध’, नेमिचन्द्र, भारत भूषण, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर तथा रामविलास शर्मा। इसी प्रकार सन् 1951 में दूसरा सप्तक प्रकाशित हुआ, जिसमें सात कवि-भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, शमशेर बहादुर, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, हरिनारायण व्यास तथा धर्मवीर भारती थे। सन् 1959 में तीसरा सप्तक भी प्रकाशित किया गया। ‘अज्ञेय’ के सम्पादकत्व में चौथा सप्तक सन् 1978 ई० में प्रकाशित किया गया।

प्रयोगवादी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ) — इस युग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

  1. सामाजिक व्यवस्था के प्रति क्षोभ
  2. नये विम्ब का विधान
  3. कुण्ठा व निराशा के स्वर
  4. सौन्दर्य के प्रति दृष्टिकोण
  5. यथार्थवादी दृष्टिकोण
  6. विरूप का चित्रण

नई कविता (सन् 1953 से 1960 ) – प्रयोगवादी काव्यधारा विकसित होकर नई कविता के रूप में प्रस्फुटित हुई। नई कविता मूलत: नये पत्ते (1953) के प्रकाशन के साथ प्रकाश में आई। सन् 1954 ई० में डॉ० जगदीश गुप्त और डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में ‘नई कविता’ काव्य संकलन के प्रकाशन से आधुनिक काव्य के इस नये रूप का शुभारम्भ हुआ।

नई कविता के प्रमुख कवि हैं— जगदीश गुप्त, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, कुँवर नारायण, श्रीराम वर्मा, नागार्जुन, मुद्राराक्षस, गिरिजाकुमार माथुर मुक्तिबोध, शान्ता सिन्हा, रघुवीर सहाय, राजनारायण बिसारिया आदि।

नई कविता की प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ) – इस कविता की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. बौद्धिकता की प्रधानता
  2. लघुता का दृष्टिकोण
  3. अतृप्त प्रेम-चित्रण
  4. भाषा में नये प्रयोग
  5. भाषा व छन्दों में नवीनता
  6. तीक्ष्ण व्यंग्य की प्रधानता
  7. अति यथार्थवाद
  8. अभिव्यक्ति क्षमता की प्रधानता

आधुनिक काल (सन् 1843 ई०-आज तक )
पूर्ववर्ती तीनों कालों में विशेषतः पद्य की प्रधानता रही आधुनिक काल में गद्य की प्रधानता पाई जाती है। इसी आधार पर कतिपय विद्वानों ने इस काल को ‘गद्य काल’ की संज्ञा से सम्बोधित किया। कुछ विद्वानों द्वारा इसे ‘नवीन विकास का काल’ तथा कुछ ने इसे ‘पुनर्जागरण काल’ कह कर पुकारा है।

रीतिकालीन एवं आधुनिकयुगीन काव्य की प्रमुख धाराएँ
(कवि और उनकी रचनाएँ)
काव्यधारा / युग
  1. रीतिकाल
  2. भारतेन्दु युग
  3. द्विवेदी युग
  4. छायावादी युग
  5. प्रगतिवादी युग
  6. प्रयोगवादी युग
  7. नई कविता
रचनाएँ
  1. बिहारी सतसई, शिवराज भूषण
  2. प्रेम-माधुरी, कश्मीर-सुषमा
  3. साकेत, प्रियप्रवास
  4. कामायनी, यामा
  5. अनामिका, उर्वशी
  6. आँगन के पार द्वार, प्यासी पथराई आँखें
  7. धूप के धान, खुशबू के शिलालेख

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