दहेज : एक सामाजिक कलंक अथवा दहेज प्रथा अथवा दहेज प्रथा की एक समस्या अथवा दहेज: एक सामाजिक अभिशाप अथवा दहेज प्रथा : कारण और निवारण अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा और दहेज
रूपरेखा — 1. प्रस्तावना 2. दहेज का अर्थ 3. दहेज की प्राचीन परम्परा 4. दहेज प्रथा के जन्म के कारण 5. दहेज प्रथा को रोकने के उपाय 6. उपसंहार

दहेज : एक सामाजिक कलंक पर निबंध 1000 शब्दों में- Dahej par nibandh
1. प्रस्तावना—आज हमारा समाज अनेक समस्याओं से ग्रसित है। इन समस्याओं में मुख्य नाम दहेज समस्या को कहा जा सकता है। लोगों द्वारा इसे ‘सामाजिक कोढ़’ या कलंक कहा जाता है। अन्य शब्दों में वर्तमान समय में दहेज प्रथा सामाजिक प्रथा के नाम पर कुप्रथा का नाम दिया और इसे समाज के लिए अभिशाप बना दिया।
सामान्य रूप में आजकल दहेज उसे कहा जाता है जो पुरुष – स्त्री के विवाह के समय पर कन्या पक्ष द्वारा स्वेच्छा से प्रदान की जाती है। यह आप उचित निर्णय करे, इस शादी के समय दिए गए सामान को उपहार का नाम या दहेज का नाम देना उचित समझोगे। आज धनी व्यक्तियों या सेवारत लड़कों के परिवारों द्वारा दहेज की मांग की जाने लगी है।
वर पक्ष को अत्याधिक बदनाम किया जा रहा है जबकि घिनौना कार्य लड़की के परिवार या लड़की के निजी प्रयोग हेतु दिये गये पिता कन्या के उपयोग का सामान उपलब्ध न करा पाए, तो कन्या अपने पिता • सामान को दहेज का नाम दिया। यदि वर से प्रयोगार्थ सामान ले, तो दहेज माँगना कहते हैं। जबकि वास्तविकता है कि वर-कन्या को अपनी आय के अनुरूप खर्च या सुख-सुविधाओं को प्रयोग में लाना चाहिए।
कुछ समाज के ठेकेदारों ने इस कुप्रथा को माथे का कलंक रूपी टीका बना दिया। प्रतिदिन समाचार पत्रों में इन दुर्घटनाओं के समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। नारी-उत्पीड़न के किस्सों को सुनकर कठोर से कठोर व्यक्ति का हृदय भी पीड़ा और ग्लानि से भर जाता है।
2. दहेज का अर्थ- सामान्यत: दहेज का अर्थ उन सम्पत्तियों तथा वस्तुओं से समझा जाता है, जिन्हें विवाह के समय वधू पक्ष की ओर से वर-पक्ष को दिया जाता है। मूलत: इसमें स्वेच्छा का भाव निहित था, किन्तु आज दहेज का अर्थ इससे नितान्त भिन्न हो गया है।
अब इसका तात्पर्य इस सम्पत्ति अथवा मूल्यवान वस्तुओं से है, जिन्हें विवाह की शर्त के रूप में कन्या-पक्ष द्वारा वर पक्ष को विवाह से पूर्व अथवा बाद में देना पड़ता है। वास्तव में इसे दहेज की अपेक्षा वर-मूल्य कहना अधिक उपयुक्त होगा।
3. दहेज की प्राचीन परम्परा – बेटे के जन्म पर शहनाइयाँ बजती तो आपने सुनी होगी परन्तु बेटी की तो वर्षगाठ मनाने वाले दीपक लेकर खोजने पड़ेंगे। बेटे को जन्म देने वाली माँ भाग्यशालिनी होती है परन्तु पुत्रियों की जन्मदात्री अभागिनी मानी जाती है। वह उस देश में जहाँ घोषणा की गई है
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता । “
(अर्थात् जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवगण निवास करते हैं।)
तथा कवि शारदा प्रसाद शर्मा ‘शारदेन्दु’ ने कहा है
मात्र दहेज प्रथा के कारण,
मन दुखी पिता का रहता है।
छप्पर से लेकर महलों तक,
दानव दहेज का लगता है।
नारी पूजक देश में नारी की जितनी उपेक्षा और असम्मान हुआ है उतना और कहीं नहीं । शायद नारी की हीनता को ढकने, इस अवांछित भार से मुक्त होने के शुल्क के रूप में ही ‘दहेज’ की आवश्यकता पड़ेगी।
दहेज की परम्परा आज ही जन्मी हो, ऐसा नहीं है। दहेज तो हजारों वर्षों से इस देश में चला आ रहा है। प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है। कन्यारूपी ‘वस्तु’ के दान के साथ प्रदान की जाने वाली यह दक्षिणा इस देश की प्राचीन परम्परा है।
4. दहेज प्रथा के जन्म के कारण- प्राचीनकाल में धनिक और सामन्त लोग अपनी पुत्री को शादी में सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात आदि प्रचुर मात्रा में दिया करते थे। धीरे-धीरे यह प्रथा सम्पूर्ण समाज में फैल गई। समस्त समाज जिसे ग्रहण कर ले वह दोष भी गुण बन जाता है। फलतः कालान्तर में दहेज सामाजिक विशेषता बन गई।
किन्तु आगे चलकर यह प्रथा भारतीय समाज में व्याप्त धर्मान्तरों और रूढ़िवादिता के कारण कुप्रथा में बदल गई। हमारा नैतिक पतन भी इस कुप्रथा के प्रचार और प्रसार में बहुत सहायक रहा है। सही शिक्षा के अभाव में भी यह कुप्रथा काफी विकसित हुई है। इसका एक मुख्य कारण भारतीय समाज में नारी को पुरुष की अपेक्षा निम्न स्तर का समझा जाना है। कवि शारदा प्रसाद शर्मा ‘शारदेन्दु’ का कथन है—
जन्मा जिस दिन पूत मात ने,
तन-मन गुलाब – सा फूल गया।
जन्मी जिस दिन कन्या घर में,
तन-मन चिन्ता से सूख गया।
5. दहेज प्रथा को रोकने के उपाय- दहेज प्रथा को दूर करने के लिए सरकार और समाज दोनों को प्रयास करना होगा। सरकार को इस प्रथा को रोकने के लिए कड़े कानून का सहारा लेना होगा। यद्यपि सरकार ने दहेज निरोधक कानून बनाया है, लेकिन उससे कोई सफलता नहीं मिली है। यदि सरकार इस कानून का सच्चाई और कड़ाई के साथ पालन करे, तो कुछ सफलता मिल सकती है।
कानून से बढ़कर दहेज प्रथा को दूर करने के लिए जन-सहयोग अत्यन्त आवश्यक सामाजिक संस्थाएँ भी इस दिशा में सहायक सिद्ध हो सकती है। इस प्रथा को समाप्त करने के लिए सामाजिक चेतना की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके लिए युवा वर्ग को आगे आना चाहिए, उन्हें स्वेच्छा से बिना दहेज के विवाह करके आ प्रस्तुत करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सहशिक्षा भी इस कुप्रथा को दूर करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इसके लिए कवि शारदा प्रसाद शर्मा ‘शारदेन्दु’ जी ने कहा है-
दुल्हन से बड़ा कोई दहेज नहीं,
हर सास-ससुर को समझाओ।
बहू को बेटी जैसा मानो,
कभी न उसको त्रास दिलाओ ॥
तथा
प्रचलन दहेज का दूर करो,
दहेज स्वदेश का दानव है।
नारी समाज का यह कलंक,
इससे पीड़ित हर मानव है।
यह समस्या इसके मूल कारणों पर प्रहार किए बिना नहीं समाप्त हो सकती। शासन कानूनों का दृढ़ता से पालन कराए, यदि आवश्यक हो, तो विवाह कर भी लगाए जिससे धूम-धाम और प्रदर्शन समाप्त हो। कन्याओं को स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनना होगा।
6. उपसंहार – दहेज प्रथा एक सामाजिक बुराई है; अतः इसके विरुद्ध स्वस्थ जनमत का निर्माण करना चाहिए। जब तक समाज में जागृति नहीं होती, तब तक दहेज रूपी दानव से मुक्ति कठिन है। राजनेताओं, समाज सुधारकों तथा सकता है। दहेज विरोधी कानूनों का कठोरता से युवक-युवतियों आदि सभी के सहयोग से ही दहेज प्रथा का अन्त पालन होना चाहिए।
जनता को जागरूक और धर्माचार्यों को दक्षिणा का लोभ त्याग कर नारी के गौरव की पुर्नप्रतिष्ठा करनी चाहिए। स्वयंवर – प्रथा फिर से अपने परिष्कृत रूप में अपनायी जानी चाहिए। कुलीनता और ऐश्वर्य के थोथे अंहकार होकर युवक-युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने में सर्तक सहयोग देना माता-पिता का कर्त्तव्य होना चाहिए,
इस कलंक से मुक्ति पाना भारतीय समाज के लिए ‘कन्यादान’ से भी बढ़कर पुण्य होगा।