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जीवन परिचय –
सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म 20 मई 1900 को अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गांव में हुआ था। जो कि उत्तराखंड में स्थित हैं। इनके पिताजी का नाम गंगादत्त पन्त और माताजी का नाम सरस्वती देवी था। पन्तजी का पालन पोषण उनकी दादीजी ने किया।
जन्म के कुछ ही समय बाद इनकी माताजी का निधन हो गया था। पन्त सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे, बचपन में इनका नाम गोसाई दत्त रखा था, पन्त को यह नाम पसंद नहीं था। इसलिए इन्होने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पन्त रख लिया, सिर्फ सात साल की उम्र में ही पन्त ने कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था।
भारत सरकार ने इनको पद्म भूषण ‘ की उपाधि से सम्मानित किया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने इनको ‘ साहित्य वाचस्पति ‘ से सम्मानित किया। सन् 1965 ई0 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘ लोकायतन ‘ पर दस हजार रुपये का पुरस्कार दिया।
सन् 1969 ई0 में ‘ चिदम्बरा ‘ पर आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। इनको आकाशवाणी का निदेशक नियुक्त किया गया। इनका निधन 28 दिसम्बर , सन् 1977 ई . (सं . 2034 वि .) में इलाहाबाद में हुआ।
- नाम – सुमित्रानन्दन पन्त।
- जन्म – 20,मई 1900 ई० (संवत् 1957 वि०)।
- मृत्यु – 28 दिसम्बर, 1977 ई०।
- जन्म स्थान – कौसानी।
- मृत्यु स्थान – प्रयागराज।
- पिता – पं० गंगादत्त पन्त।
- माता – सरस्वती देवी।
- भाषा – खड़ीबोली।
- कृतियाँ – वीणा, मानसी, वाणी, युग पथ, सत्यकाम, ग्रंथी,उच्छावास, पल्लव, मधु ज्वाला, गुंजन, लोकायतन पल्लवणी
साहित्यिक-परिचयः-
पन्त जी का बाल्यकाल कौसानी के सुरम्य वातावरण में व्यतीत हुआ। इस कारण प्रकृति ही उनकी जीवन-सहचरी के रूप में रही और काव्य-साधना भी प्रकृति के बीच रहकर ही की। प्रकृति-वर्णन की दृष्टि से पन्त जी हिन्दी के वर्ड्सवर्थ माने जाते हैं।
अतः प्रकृति वर्णन, सौन्दर्य प्रेम और सुकुमार कल्पनाएँ उनके काव्य में प्रमुख रूप से पायी जाती हैं। छायावादी युग के ख्याति प्राप्त कवि सुमित्रानन्दन पन्त सात वर्ष की अल्पायु से कविताओं की रचना करने लगे थे।
उनकी प्रथम रचना सन् 1916 ई० में सामने आयी। पन्त जी के साहित्य पर कवीन्द्र रवीन्द्र, स्वामी विवेकानन्द का और अरविन्द दर्शन का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।गिरजे का घण्टा नामक इस रचना के पश्चात् वे निरन्तर काव्य साधना में तल्लीन रहे।
इसलिए उनकी बाद की रचनाओं में अध्यात्मवाद और मानवतावाद के दर्शन होते है। अन्त में पन्त जी प्रगतिवादी काव्यधारा की ओर उन्मुख होकर दलितों और शोषितों की लोक क्रांति के अग्रदूत बने।उनकी कल्पना ऊँची, भावना कोमल और अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण है। पन्तजी ने साम्यवाद के समान ही गाँधीवाद का भी स्पष्ट रूप से समर्थन करते हुए लिखा है।
शिक्षा –
सन् 1905 में पाँच वर्ष के बालक पन्त ने विद्यारम्भ किया। पिता जी ने लकड़ी की पट्टी पर श्रीगणेशाय नमः लिखकर सरस्वती के वरद पुत्र को स्वर-व्यंजन वर्ण लिखना सिखाया। पन्त के फूफाजी ने उन्हें संस्कृत की शिक्षा दी तथा 1909 तक मेघदूत, अमरकोश, रामरक्षा-स्रोत, चाणक्य नीति, अभिज्ञान-शाकुन्तलम् आदि का ज्ञान पन्त जी को करवा दिया ।
पन्त जी का प्रथम विद्यालय होने का श्रेय प्राप्त हुआ- उनके गाँव कौसानी की पाठशाला कौसानी वनार्क्यूलर स्कूल को। इसके पश्चात् ये अल्मोड़ा के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् काशी के जयनारायण हाईस्कूल, बनारस से हाईस्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की।
हाईस्कूल के बाद पन्त जी ने आगे की शिक्षा हेतु प्रयाग के म्योर कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया।पन्तजी के पिताजी ने उन्हें स्वयं घर पर ही अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान दी। बाद में कालेज और परीक्षा के कठोर नियंत्रण से मुक्त होकर पन्त जी स्वाध्याय में निरत हुए और स्वयं ही अपने आप को शिक्षित करना प्रारम्भ किया।
तीर्थराज प्रयाग पन्त जी की साहित्य-साधना का केन्द्र बना। पन्त जी का लगाव संगीत से भी था। उन्होंने सारंगी, हारमोनियम, इसराज तथा तबला पर संगीत का अभ्यास भी किया और सुरुचिपूर्ण रहन-सहन तथा आकर्षक वेशभूषा से उधर झुकते भी गये।
महत्वपूर्ण कार्य –
सन् 1921 में गाँधी और गाँधी-विचार-दर्शन ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे पढ़ाई छोड़कर असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गये।सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी के आह्वान पर कॉलेज छोड़ दिया। सन् 1950 में पन्त जी आकाशवाणी से जुड़े और वहाँ चीफ प्रोड्यूसर के पद पर सन् 1957 तक कार्यरत् रहे।
किन्तु अपने कोमल स्वभाव के कारण सत्याग्रह में सम्मिलित न रह सके और पुनः साहित्य-साधना में संलग्न हो गये। सन् 1958 में आकाशवाणी में ही हिन्दी परामर्शदाता के रूप में रहे। तथा सोवियत-भारत-मैत्री-संघ के निमन्त्रण पर पन्त जी ने सन् 1961 में रूस तथा अन्य यूरोपीय देशों की यात्रा की।
कृतियाँ –
पन्त जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार थे। अपने विस्तृत साहित्यिक जीवन में उन्होंने विविध विधाओं में साहित्य रचना की है।
उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार है—
लोकायतन (महाकाव्य) –
पन्त जी का लोकायतन महाकाव्य लोक जीवन का महाकाव्य है। यह महाकाव्य सन् 1964 में प्रकाशित हुआ। इस रचना में कवि ने ग्राम्य-जीवन और जन-भावना को छन्दोबद्ध किया है।इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा व्यक्त हुई है।
वीणा –
इस रचना में पन्त जी ने प्रारम्भिक प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य से पूर्ण गीत संगृहीत किया हैं।
पल्लव –
इस संग्रह पंत जी ने प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य के व्यापक चित्र प्रस्तुत किये गये हैं।
गुंजन –
इसमें प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य से सम्बन्धित गम्भीर एवं प्रौढ़ रचनाएं संकलित किया गया हैं।
ग्रन्थि –
इस काव्य-संग्रह में वियोग का स्वर भी प्रमुख रूप से मुखरित हुआ है। प्रकृति यहाँ भी कवि की सहचरी रही है।
अन्य कृतियाँ –
युगपथ, स्वर्णधूलि, स्वर्ण-किरण, उत्तरा तथा अतिमा आदि में पन्तजी महर्षि अरविन्द के नवचेतनावाद से प्रभावित किया गया है। युगवाणी,युगान्त और ग्राम्या में कवि समाजवाद और भौतिक दर्शन की ओर उन्मुख हुआ है। इन रचनाओँ में कवि ने दीन-हीन और शोषित वर्ग को अपने काव्यों का आधार बनाया है।