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जीवन-परिचय –
श्री वैद्यनाथ मिश्र (यात्री नागार्जुन) का : जन्म दरभंगा जिले के सतलखा ग्राम में सन् 1911 ई० में हुआ था। जीवन के अभाव ने ही आगे चलकर इनके संघर्षशील व्यक्तित्व का निर्माण किया। इनका आरम्भिक जीवन अभावों का जीवन था।
व्यक्तिगत दुःख ने इन्हें मानवता के दुःख को समझने की क्षमता प्रदान की। इनके जीवन की यही रागिनी इनकी रचनाओं में मुखर हुई है। 5 नवम्बर, सन् 1998 ई० को इनकी मृत्यु हो गयी।
- जन्म- 30 जून, 1911 ई०।
- मृत्यु – 5 नवम्बर, सन् 1998 ई०।
- जन्म- स्थान-सतलखा (दरभंगा)।
- वास्तविक नाम- वैद्यनाथ मिश्र।
साहित्यिक परिचय-
इनके हृदय में सदैव दलित वर्ग के प्रति संवेदना रही है। अपनी कविताओं में ये अत्याचार-पीड़ित, त्रस्त व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करके ही सन्तुष्ट नहीं हो गये, बल्कि उनको अनीति और अन्याय का विरोध करने की प्रेरणा भी दी। व्यंग्य करने में इन्हें संकोच नहीं।
सम-सामयिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याओं पर इन्होंने काफी लिखा है। तीखी और सीधी चोट करनेवाले ये अपने समय के प्रमुख व्यंग्यकार थे। इन्हें 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित किया गया।
इनकी रचनाओं पर उत्तर प्रदेश का ‘भारत-भारती’, मध्य प्रदेश का ‘कबीर’ तथा बिहार का ‘राजेन्द्र प्रसाद’ सम्मान प्राप्त हुआ। नागार्जुन जीवन के, धरती के, जनता के तथा श्रम के गीत गानेवाले ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताओं को किसी वाद की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व की भाँति इन्होंने अपनी कविता को भी स्वतन्त्र रखा है।
रचनाएँ—
उपन्यास-
‘बलचनमा’, ‘नयी पौध’, ‘बाबा बटेसरनाथ’,’रतिनाथ की चाची’, ‘दुःखमोचन’ और ‘वरुण बेटे’, दुःखमोचन,कुंभीपाक, पारो, उग्रतारा, आसमान में चाँद तारे ।
काव्य-
‘प्यासी-पथरायी आँखें’, ‘खून और शोले’,’युगधारा’, ‘सतरंगे पंखोंवाली’, ‘हजार-हजार बाँहोंवाली’, ‘तुमने कहा था’, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने,पुरानी जूतियों का कोरस, इस गुबार की छाया में, ओममंत्र, भूल जाओ, खिचड़ी विप्लव देखा हमने,पुराने सपने, रत्नगर्भ, तालाब की मछलियों।
मैथिली रचनाएँ-
चित्रा, पारो, नवतुरिया (उपन्यास),पत्रहीन नग्न गाछ (कविता संग्रह), बांग्ला रचनाएँ : मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद), ऐसा क्या कह दिया मैंने-नागार्जुन रचना संचयन।
व्यंग्य – अभिनन्दन ।
निबन्ध संग्रह – अन्न हीनम क्रियानाम।
बाल साहित्य- कथामंजरी-भाग-1, कथामंजरी भाग-2, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँ।
नागार्जुन जी की शैली-
नागार्जुन जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की अमिट छाप है। वे अपनी बात अपने ढंग से कहते हैं, इसलिए उनकी काव्य-शैली किसी से मेल नहीं खाती। वे अपनी ओर से अपनी शैली में भाषा का न तो शृंगार करते दीख पड़ते हैं और न रस-परिपाक की योजना का अनुष्ठान करते हैं। उनकी कविताएँ प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण एक प्रकार के सहज भाव-सौन्दर्य से दीप्त हो उठी हैं।
उनके भाव स्वयं ही अपनी अभिव्यक्ति के अनुकूल अपनी भाषा के रूप-निर्माण कर उसमें रस की प्रतिष्ठा कर लेते हैं इसलिए उनकी शैली स्वाभाविक और पाठकों के हृदय में तत्सम्बन्धी भावनाओं को उद्दीप्त करनेवाली होती है। उन्होंने अधिकांशतः मुक्तक काव्यों की ही रचना की है।
मुक्तक काव्य दो प्रकार के होते हैं—
1. भाव-मुक्तक 2. प्रबन्ध-मुक्तक ।
भाव-मुक्तक दो प्रकार के हैं—
(i). गेय (ii). सुपाठ्य।
नागार्जुन जी की अधिकांश भाव-मुक्तक सुपाठ्य हैं। उनके सुपाठ्य भाव-मुक्तक उनके भावाभिव्यक्ति के अनुरूप कई प्रकार के हैं। कुछ भाव-मुक्तकों में प्रगति और प्रयोग का मणिकांचन संयोग है, कुछ प्रगतिवादी स्वर मुखरित हो उठा है, कुछ में ग्राम्य एवं नागरिक जीवन की संघर्षमय परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण है, कुछ में प्रणय-निवेदन है, कुछ में प्रकृति-चित्रण है और कुछ में शिष्ट-गम्भीर हास्य तथा सूक्ष्म तीखे व्यंग्य की सृष्टि है।
नागार्जुन जी ने अपने काव्य-विषयक तत्सम्बन्धी प्रतीकों के माध्यम से उभारने में अच्छी सफलता प्राप्त की है। ‘युगधारा’ में उनकी काव्य शैली की समस्त विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।अपने मुक्तकों में उन्होंने मात्रिक छन्दों को स्थान देने के साथ अतुकान्त छन्दों को भी स्थान दिया है।
उनकी काव्य-शैली में न तो अलंकारों के प्रयोग के प्रति विशेष आग्रह और न रस-परिपाक के प्रति। फिर भी अलंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि के अनेक उदाहरण मिलते हैं। रसों शृंगार, करुण, हास्य, वीर, रौद्र, शान्त आदि की सृष्टि स्वाभाविक ढंग से हुई है। उन्होंने अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व की भाँति अपन काव्य-शैली को भी स्वतन्त्र रखने की चेष्टा की है।
नागार्जुन जी की भाषा-
नागार्जुन जी की भाषा अधिकांशतः लोक भाषा के अधिक निकट है। इसलिए उनकी भाषा सहज, सरल, बोधगम्य, स्पष्ट, स्वाभाविक और मार्मिक प्रभाव डालनेवाली है। कुछ थोड़ी-सी कविताओं में संस्कृत के क्लिष्ट तत्सम,मदिरारुण, विसतन्तु, उन्माद आदि शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में अवश्य किया गया है, किन्तु ऐसे शब्दों के प्रयोग से उनकी भावाभिव्यक्ति में बाधा नहीं पड़ती है।
जिन कविताओं में संस्कृत की क्लिष्ट तत्समों की अधिकता है उनमें भी पाण्डित्य-प्रदर्शन के प्रति उनका आग्रह न होकर भावाभिव्यक्ति के अनुरूप भाषा की प्रतिष्ठा करने का स्वाभाविक प्रयास है।किन्तु ऐसे शब्द उनकी भावाभिव्यक्ति में बाधक न होकर उसमें एक विविध प्रकार की मिठास उत्पन्न करते हैं।
संस्कृत, पालि और प्राकृत भाषाओं के ज्ञाता होकर भी उनमें पाण्डित्य-प्रदर्शन की लालसा नहीं है। उन्होंने अपनी भाषा में तद्भव तथ ग्रामीण शब्दों का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया है। कुछ कविताओं को छोड़कर उन्होंने अपनी शेष कविताओं में लोक-मुख को वाणी दी है। उनकी भाषा में न तो शब्दों की तोड़-मरोड़ है और न उस पर मैथिली का प्रभाव है।