
विषय सूची
जीवन परिचय –
युग-प्रवर्तक कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी के एक सम्पन्न वैश्य परिवार में सन् 1850 ई0 के सितम्बर माह में हुआ था। इनके पिता गोपालचन्द्र जी ‘गिरिधरदास‘ उपनाम से काव्य-रचना करते थे। 10 वर्ष की अवस्था में ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र माता-पिता के सुख से से वंचित हो गये थे।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सात वर्ष की अवस्था में ही एक दोहे की रचना की, जिसको सुनकर पिता ने इनको महान् कवि बनने का आशीर्वाद दिया। इनकी आरम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई, जहाँ इन्होंने हिन्दी, उर्दू, बँगला एवं अंग्रेजी का अध्ययन किया।
इसके पश्चात् क्वीन्स कालेज, वाराणसी में प्रवेश लिया, किन्तु काव्य-रचना में रुचि होने के कारण इनका मन अध्ययन में नहीं लगा और इन्होंने शीघ्र ही कालेज छोड़ दिया। इनका विवाह 13 वर्ष की उम्र में ही मन्नो देवी के साथ हो गया था।
उदारता के कारण शीघ्र ही इनकी आर्थिक दशा शोचनीय हो गयी और ये ऋणग्रस्त हो गये। काव्य-रचना के अतिरिक्त इनकी रुचि यात्राओं में भी थी। 15 वर्ष की अवस्था में ही जगन्नाथपुरी की यात्रा के पश्चात् ही इनके मन में साहित्य-सृजन की इच्छा अंकुरित हुई थी। भारतेन्दु जी बहुत उदार एवं दानी थे।
छोटे भाई ने भी इनकी दानशीलता के कारण सम्पत्ति का बँटवारा करा लिया था। ऋणग्रस्तता के समय ही ये क्षय रोग के शिकार भी हो गये। इन्होंने रोग से मुक्त होने का हर सम्भव प्रयत्न किया, किन्तु रोग से मुक्त नहीं हो सके। सन् 1885 ई० में इसी रोग के कारण मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में ही भारतेन्दु जी का स्वर्गवास हो गया।
• जन्म-1850 ई०।
• मृत्यु – 1885 ई०।
• पिता- गोपालचन्द्र ।
• जन्म- स्थान— वाराणसी (उ० प्र०) ।
• भाषा– ब्रज भाषा एवं खड़ीबोली ।
• भारतेन्दु युंग के प्रवर्तक ।
साहित्यिक सेवाएँ-
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एक प्रतिभासम्पन्न एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार थे। अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हुए इन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में अमूल्य योगदान दिया। ये अनेक भारतीय भाषाओं में कविता करते थे, किन्तु ब्रजभाषा पर इनका विशेष अधिकार था।
हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए इन्होंने न केवल स्वयं साहित्य का सृजन किया, अपितु अनेक लेखकों को भी इस दिशा में प्रेरित किया। इन्होंने हरिश्चन्द्र चंद्रिका, कवि वचन सुधा और बालाबोधिनी पत्रिकाओं का सम्पादन किया।
सामाजिक, राजनीतिक एवं राष्ट्रीयता की भावना पर आधारित अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतेन्दु जी ने एक नवीन चेतना उत्पन्न की। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर तत्कालीन पत्रकारों ने सन् 1880 ई० में इन्हें ‘भारतेन्दु‘ की उपाधि से सम्मानित किया।
रचनाएँ–
अल्पायु में ही भारतेन्दु जी ने हिन्दी को अपनी रचनाओं का अप्रतिम कोष प्रदान किया। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है –
1. काव्य-कृतियाँ—
प्रेम माधुरी, नए जमाने की मुकरी, सुमनांजलि, प्रेम तरंग, विजय पताका, बन्दर सभा, उत्तरार्द्ध प्रेम-प्रलाप, गीत-गोविन्दानन्द, फुलवारी, कृष्ण चरित्र, प्रेमाश्रु-वर्षण, होली, वर्षा विनोद, विनय प्रेम पचासा,मधु मुकुल, राग-संग्रह, भक्त सर्वस्व, प्रेम-मालिका, फूलों का गुच्छा, प्रेम भक्तमाल, दान लीला, प्रेम-सरोवर, वीरत्व, विजय-वल्लरी, विजयिनी, बकरी विलाप, तन्मय लीला।
2. नाटक—
‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘श्री चन्द्रावली’, ‘अंधेर नगरी’, ‘विषस्य विषमौषधम्’,’भारत दुर्दशा’, ‘नीलदेवी’, ‘प्रेम जोगिनी’ एवं ‘सती प्रताप’ ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, आदि।
3. उपन्यास –
‘चन्द्रप्रभा’ ‘पूर्णप्रकाश’,। ये दोनों सामाजिक उपन्यास हैं।
4. यात्रा-वृत्तान्त –
‘लखनऊ की यात्रा’ ‘सरयूपार की यात्रा’, । इसके अतिरिक्त जीवनियाँ, इतिहास और पुरातत्त्व सम्बन्धी रचनाएँ भी इनकी प्राप्त होती हैं।
5. अनूदित रचनाएँ –
भारतेन्दु ने संस्कृत से मुद्राराक्षस और प्राकृत से ‘कर्पूर मंजरी’ नामक नाटकों का भी हिन्दी में अनुवाद किया। बांग्ला भाषा से ‘विद्या सुंदर’ नामक नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया था। विद्या सुंदर, पाखण्ड विडम्बन, धनंजय विजय, भारत जननी, दुर्लभ बन्दु इनकी कुछ अन्य अनूदित रचनाएँ हैं।
6. निबन्ध संग्रह –
भारतेन्दु ग्रन्थावली, लेवी प्राण लेवी, नाटक, कालचक्र, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?, जातीय संगीत, संगीत सार,कश्मीर कुसुम, हिन्दी भाषा, स्वर्ग में विचार सभा रहा है।
7. आत्मकथा –
एक कहानी- कुछ जगबीती, कुछ आपबीती। भाषा-शैली – भारतेन्दु जी का खड़ीबोली एवं ब्रजभाषा; दोनों पर ही समान अधिकार था। साथ ही प्रचलित शब्दों, मुहावरों एवं कहावतों का यथास्थान प्रयोग किया है। इन्होंने अपने काव्य के सृजन – हेतु ब्रजभाषा को ही अपनाया। इन्होंने मुख्य रूप मुक्तक शैली का प्रयोग किया। इनके द्वारा प्रयुक्त शैली प्रवाहपूर्ण सरल, सरस एवं भावपूर्ण है।