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जीवन परिचय –
एक बार जब वे अलीपुर जेल की एक गंदे सेल में बंद थे। तब उन्होंने एक स्वप्न देखा जिसमे उनसे भगवान कह रहे हैं की आज़ादी के लिए स्थूल से ज्यादा सूक्ष्म कार्य करने की आवश्यकता है। क्योंकि यह समय बदलाव का है और तुम्हे साधना करके भारत को सूक्ष्म रूप से शक्तिशाली बनाना होगा।
वह माहौल बनाना होगा जिसमे पवित्र आत्माएं भी धरती पे आयें और इस संघर्ष में आहुति दें और भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का आदेश दिया। उन्होंने क़ैद की इस अवधि का उपयोग गीता की शिक्षाओं का गहन अध्ययन और अभ्यास के लिए किया।
जेल से निकलने के बाद वे पांडिचेरी में 4 साल तक योग पर अपना ध्यान केंद्रित करने के बाद 1914 में श्री आर्य नामक मासिक पत्रिका की शुरुवात की। उनका आध्यात्मिकता पर पूरा भरोसा था, उनके अनुसार आध्यात्मिकता ये हर एक इंसान से जुडी हुई है। 1926 में, उनके आध्यात्मिक सहकर्मियों, मिर्रा अल्फस्सा(माता), की मदद से श्री औरोबिन्दो आश्रम की स्थापना की।
- पूरा नाम – अरविंद कृष्णघन घोष।
- जन्म – 15 अगस्त 1872 कोलकता (पं. बंगाल)।
- मृत्यु – 5 दिसंबर, 1950
- पिता – कृष्णघन।
- माता – स्वर्णलता देवी।
- विवाह – मृणालिनी के साथ (1901 में)।
अरविन्द घोष जी की मृत्यु ?
5 दिसंबर 1950 को अरविन्द घोष शरीर त्याग कर सम्पूर्णता में विलीन हो गए। जिसके बाद भारतीय तत्वदर्शियों ने उन्होंने महर्षि की उपमा दी और वे महर्षि अरविन्द कहलायें।
रचनाएँ –
उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से ज्यादातर के लिए एक माध्यम बन गया जो कि एक धारावाहिक के रूप में आयीं इस प्रकार से है-
- द ह्यूमन साइकिल
- वेदों का रहस्य
- द फ्यूचर पोएट्री
- गीता का वर्णन
- द रेनेसां इन इंडिया
- वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन
- उपनिषद
- द आइडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी
आध्यात्मिक शक्तियों और मानसिक सूक्ष्म शक्तियों से उन्होंने ऐसे माहौल का निर्माण किया। जिसमे युवा, बुजुर्ग, बच्चें या महिलाएं सभी आज़ादी के लिए स्वयं का बलिदान देने आगे आने लगे।
कुछ दिनों दिन लोगों के शहीद होने की खबरे आने लगी चाहे वह चंद्रशेखर आज़ाद हों या भगत सिंह ऐसे ऐसी हुतात्मएं आगे आईं की अंग्रेजी हुकूमत को अंततः उखड़ना पड़ा।
मुख्य ग्रन्थ –
- सावित्री (पद्यानुवाद)
- माता
- गीता-प्रबंध
- योग-समन्वय
- दिव्य जीवन
- भारतीय संस्कृति के आधार
- वेद-रहस्य
- केन एवं अन्यान्य उपनिषद्
- ईशोपनिषद
- श्रीअरविन्द अपने विषय में
महत्वपूर्ण कृतियाँ –
- “वंदे मातरम”
- लेटर्स ऑन योगा
- सावित्री
- दिव्य जीवन
- कारा काहिनी (जेलकथा)
- अरबिन्देर पत्र (अरविन्द के पत्र)
- फ्यूचर पोयट्री
- योगिक साधन
- योग समन्वय
- द मदर
- धर्म ओ जातीयता (धर्म और राष्ट्रीयता)
अरबिन्द आश्रम की स्थापना ?
आध्यात्म को लेकर अरबिंदों घोष ने कई लेख लिखे और साल 1910 में कलकत्ता छोड़ कर पांडिचेरी चले गए। वहां वे पहले तो अपने साथियों के साथ रहे लेकिन फिर उनके विचारों से प्रभावित होकर दूर-दूर से लोग आने लगे और इस तरह एक योग आश्रम की स्थापना की।
पुरस्कार ?
अरबिन्दो घोष को कविता, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान में जो योगदान दिया उसके लिए उन्हें नोबेल का साहित्य पुरस्कार(1943) और नोबेल का शांति पुरस्कार(1950) के लिए भी नामित किया गया था।
साहित्यिक प्रतिभा –
अहिंसात्मक प्रतिकार का सिध्दान्त, भारतीय नवजीवन वेद – रहस्य, दी लाईफ दिव्हाईन, यौगिक समन्वय आदी ग्रंथ बहोत प्रसिध्द है। इसके अलावा जब अरविन्द घोष इंग्लैंड में रहते थे तो वहां पर कविताएं भी लिखा करते थे। कविता को समृद्ध बनाने में उन्होंने 1930 के दौरान बड़ा योगदान दिया है।
उन्होंने “सावित्री” नाम की एक बड़ी 24000 लाइन वाली कविता लिखी है और उनकी यह कविता अध्यात्म पर आधारित है। इन सब के साथ-साथ वे दर्शनशास्त्री, कवि, अनुवादक और वेद, उपनिषद और भगवत् गीता पर लिखने का भी काम करते थे। अरबिन्दों घोष को उनके द्वारा आजादी में दिए गए योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा।
कारावास और आध्यात्म –
अरबिंदो घोष जब ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अपने विद्रोह विचारों से देशवासियों के अंदर स्वतंत्रता पाने की अलख जगा रहे थे। इसी बीच इतिहास में चर्चित अलीपुर बम षडयंत्र कांड भी हुआ जिसके चलते अंग्रेज अफसरों के द्वारा उन्हें गिफ्तार कर लिया गया।
जेल की सजा काटने के दौरान उनके जीवन में बड़ा बदलाव आया। उनका मन संसारिक कामों से अलग आध्यात्म की ओर तरफ लगा। ध्यान और योग की तरफ उनकी रुचि बढ़ने लगी और जेल से रिहाई के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह ध्यान, योग में समर्पित कर दिया।
राष्ट्रवाद –
अरबिंदो घोष राष्ट्रवाद को अध्यात्म तथा मानवता से जोड़ा है। अरबिंदो को उस समय का सबसे सफल राष्ट्रवादी भी कहा जाता है। क्योंकि उन्होंने उदारवादियों की आलोचना कर अपने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के द्वारा देशभर में एक नए उत्साह को उत्त्पन्न किया।
उनके अनुसार मनुष्य चाहे कितने भी तरह से भिन्न न हो परन्तु राष्ट्र प्रेम उसे एकता के सूत्र में बाँध देता है। वे कहते हैं कि “राष्ट्रवाद ही राष्ट्र की दैवीय एकता है” उनके राष्ट्रवादी विचार उनके लेख “वन्देमातरम्” में मिलते हैं।
शिक्षा –
अरविंद घोष के पिताजी ने अरविन्द घोष जी को मात्र सात वर्ष की उम्र में ही पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड भेज दिया था। यहाँ इन्होंने लगभग 14 साल तक पढ़ाई की थी। अरविंद घोष ने अपनी स्कूली शिक्षा सैंट पौल्स स्कूल (1884) इंग्लैंड से प्राप्त की थी। यहाँ से उन्हें छात्रवृत्ति मिली जिसके बाद में इन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कॉलेज (1890) इंग्लैंड में अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की थी।
अरविंद घोष पढाई में बहुत ही ज्यादा चतुर और बुद्धिमान थे। इन्होंने भारतीय सनदी सेवा की परीक्षा में भी काफी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर ली थी। सन 1893 में अरविंद घोष को बड़ोदा के गायकवाड में एक नौकरी मिल गयी थी इसलिए वह इंग्लैंड से वापस भारत वापस आ गए थे। इनको और दूसरे देशों की भाषा व संस्कृति के बारे में बहुत जानकारी थी परंतु उनको भारतीय संस्कृति व सभ्यता के बारे मे बहुत ही कम जानकारी थी।
अरविंद घोष ने 1893 से 12 साल तक लगातार बड़ोदा में एक शिक्षक की नौकरी की थी और आगे चलकर वह गायकवाड़ महाराजा स्कूल के सचिव भी बन गए थे। इसके बाद में इन्होंने ने बड़ोदा के एक कॉलेज में एक बाईस प्रिंसिपल पद के रूप में भी कार्य किया था। ऐसा करने से उन्हें भारतीय संस्कृति व सभ्यता के बारे में बहुत सारी जानकारी प्राप्त हो गई थी।
वैवाहिक जीवन –
सन् 1907 में श्री अरविंद का विवाह राँची, बिहार के निवासी श्री भूपालचन्द्र बोष की कन्या मृणालिनी देवी से हो गया। अपनी पत्नी के साथ श्री अरविन्द का व्यवहार सदैव प्रेम पूर्ण रहा, पर ऐसे असाधारण व्यक्तित्व वाले महापुरूष की सहधर्मिणी होने से उसे सांसारिक दृष्टि से कभी इच्छानुसार सुख की प्राप्ति नहीं हुई।
प्रथम तो राजनीतिक जीवन की हलचल के कारण उन्हें पति के साथ रहने का अवसर कम ही मिल सका फिर आर्थिक दृष्टि से भी श्री अरविन्द का जीवन जैसा सीधा-सादा था, उसमें उसे कभी वैभवपूर्ण जीवन के अनुभव करने का अवसर नहीं मिला, केवल जब तक वे बड़ौदा में रहे, वह कभी-कभी उनके साथ सुखपूर्वक रह सकीं।
लेकिन जब समय तथा परिस्थितियों की माँग के अनुसार पॉण्डिचेरी जाकर रहने लगे तो उनकी बढ़ी हुई योग-साधना की दृष्टि से पत्नी का साथ निरापद नहीं था तो भी कर्तव्य भावना से उन्होंने पॉण्डिचेरी आने को कह दिया पर उसी अवसर पर इनफ्लुएंजा की महामारी से आक्रमण से उनका देहावसना हो गया। श्री अरविन्द ने प्रारम्भ में ही मृणालिनी को अपने तीन पागलपन के बारे में बताया था-
- मैं भारत को अपनी माँ मानता हूँ और उसे पूजना चाहता हूँ। मेरे पास जो कुछ भी वह भारत माता का ही है। ये तीन पागलपन अरविन्द के जीवन में अत्यन्त उल्लेखनी प्रसंग है।
- मैं ईष्वर का साक्षात्कार करना चाहता हूँ।
- मुझे जो ईष्वर ने दिया है उसमें से केवल निर्वाह हेतु अपने पास रखकर बाकि सब दुसरों को देना चाहता हूँ यदि ईष्वर का अस्तित्व सत्य है तो।