रस,अलंकार एवं छन्द
विषय सूची
(क) रस
नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि के शब्दों में—विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगात् रस निष्पत्तिः– अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी (स्थायी) भाव से संयोग होने पर रस की निष्पत्ति होती है। इसी प्रकार आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा से सम्बोधित किया है (काव्यस्य आत्मा रसः )।
किसी कविता को पढ़ने या नाटक को देखने से दर्शक अथवा पाठक को जो आनन्द की अनुभूति होती है, वही रस है।
रस के चार अवयव (अंग) माने गए हैं- 1. स्थायी भाव 2. विभाव 3. अनुभाव 4. संचारी भाव।
1. स्थायी भाव – मनुष्य के हृदय में प्रतिक्षण विद्यमान रहने वाले भाव स्थायी भाव कहलाते हैं। भारतीय आचार्यों ने स्थायी भावों की संख्या नौ बतायी है।
इसी आधार पर नौ रस भी माने गए-
रस | स्थायी भाव | रस | स्थायी भाव |
---|---|---|---|
(i) शृंगार | रति | (vi) भयानक | भय |
(ii) हास्य | हास | (vii) वीभत्स | जुगुप्सा |
(iii) करुण | शोक | (viii) शान्त | निर्वेद |
(iv) वीर | उत्साह | (ix) अद्भुत | विस्मय |
(v) रौद्र | क्रोध | (x) वात्सल्य | रति, भक्ति |
2. विभाव – स्थायी भावों को जाग्रत तथा उद्दीप्त करने वाले कारणों को विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते-
(क) आलम्बन विभाव – जब किसी व्यक्ति में कोई भाव जाग्रत होता है, उस भाव को आलम्बन विभाव कहते हैं। जैसे—यदि किसी मनुष्य के मन में ‘शेर’ को देखकर भय नामक स्थायी भाव जाग जाए तो शेर उस व्यक्ति में उत्पन्न ‘भय’ नामक स्थायी भाव का आलम्बन विभाव होगा।
(ख) उद्दीपन विभाव- जो कारक आलम्बन द्वारा उत्पन्न भावों को उद्दीप्त करते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। जैसे—भय नामक स्थायी भाव को उद्दीपन करने हेतु शेर की गर्जना उसका मुँह खुलना तथा जंगल की भयानकता का दृश्य आदि उद्दीपन विभाव है।
3. अनुभाव – मनुष्य के मन में स्थायी भाव के जाग्रत होने पर उसमें कुछ शारीरिक चेष्टाएँ होती हैं, जिन्हें हम अनुभाव कहते हैं। जैसे—शेर को देखते ही कोई व्यक्ति चिल्लाने या भागने लगे तो उसकी यह क्रिया ‘अनुभाव’ कहलाएगी।
इसके मुख्यत: चार भेद हैं—(i) कायिक (ii) मानसिक (iii) आहार्य (iv) सात्त्विक ।
4. संचारी भाव – आश्रय में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। ये मनोविकार पानी के बुलबुले की तरह बनते तथा मिटते रहते हैं। स्थायी भाव अन्त तक स्थिर रहते हैं। संचारी भाव को ‘व्यभिचारी भाव’ भी कहा जाता है। आचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 (तैंतीस) बतायी है।
1. हास्य रस (स्थायी भाव-हास) – विकृत आकार, वेश, वाणी तथा उसकी चेष्टाओं को देखकर हृदय में उत्पन्न विनोद भाव को हास कहते हैं। जब यही ‘हास’ विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से परिपुष्ट हो जाए तो उसे हास्य रस कहते हैं।
उदाहरण-
बिंध्य के बासी उदासी तपोब्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे।
गोतमतीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे ।।
ह्रैहैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पद-मंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे।
स्पष्टीकरण :
स्थायी भाव – हास आश्रय-पाठक।
विभाव –
1. आलम्बन-बिंध्य के उदासवासी।
2. उद्दीपन-गौतम की स्त्री का उद्धार ।
अनुभाव-मुनियों का कथा आदि सुनना।
संचारी भाव-हर्ष, उत्सुकता, चंचलता आदि। अतः उपर्युक्त उदाहरण में हास्य रस की निष्पत्ति हुई है।
अन्य उदाहरण-
(i) जेहि दिसि बैठे नारद फूली, सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली।
पुनि-पुनि मुनि उकसहि अकुलाहीं, देखि दसा हर-गन मुसुकाहीं ।।
(ii)सर मूसर नाचत नगन, लखि हलधर को स्वांग।
हँसि-हँसि गोपी फिर हँसें, मनहुँ पिये-सी भांग ।।
2. करुण रस (स्थायीभाव-शोक)
विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव के संयोग से करुण रस की निष्पत्ति होती है, अर्थात् प्रिय व्यक्ति, वस्तु के नाश अथवा अनिष्ट से उत्पन्न क्षोभ को करुण रस कहते हैं।
उदाहरण –
मणि खोये भुजंग-सी जननी,
फन-सा पटक रही थी शीश।
अन्धी आज बनाकर मुझको,
किया न्याय तुमने जगदीश ।।
उक्त पद्य में श्रवण की मृत्यु पर उनकी माता की यह दशा करुण रस की निष्पत्ति करती है।
स्पष्टीकरण :
स्थायी भाव-शोक, विभाव-श्रवण कुमार, आश्रय-पाठक।
उद्दीपन-दशरथ की उपस्थिति।
अनुभाव-सिर पटकना।
संचारी भाव-स्मृति, विषाद, प्रलाप आदि। इनके संयोग से करुण रस की निष्पत्ति हुई।
अन्य उदाहरण
(i) हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम देखी सीता मृग नैनी।।
(ii) चहुँ दिसि कान्ह-कान्ह कहि टेरत,
अँसुवन बहत पनारे।।
3.शृंगार रस – अर्थ – सहृदय नायक-नायिका के चित्त में रति नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयोग होता है तो वह शृंगार रस का रूप धारण कर लेता है।
इस रस के दो भेद होते हैं— संयोग और वियोग, जिन्हें क्रमशः सम्भोग और विप्रलम्भ भी कहते हैं ।
संयोग शृंगार – संयोग – काल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग शृंगार कहा जाता है।
उदाहरण –
कौन हो तुम वसन्त के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार! – प्रसाद: कामायनी
इस प्रकरण में रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव है— श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय)। उद्दीपन विभाव है— एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, कोकिल-कण्ठ और रम्य परिधान । संचारी भाव है— आश्रय मनु के हर्ष, चपलता, आशा, उत्सुकता आदि भाव । इस प्रकार विभावादि से पुष्टि रति स्थायी भाव संयोग शृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है।
वियोग शृंगार — जिस रचना में नायक एवं नायिका के मिलन का अभाव रहता है और विरह का वर्णन होता है, वहाँ वियोग शृंगार होता है।
उदाहरण-
मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले
जाके आये न मधुवन से औ न भेजा सँदेशा ।
मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ
जा के मेरी सब दुख-कथा श्याम को तू सुना दे ।। – हरिऔध : प्रियप्रवास
इस छन्द में विरहिणी राधा की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। रति स्थायी भाव है। राधा आश्रय और श्रीकृष्ण आलम्बन विभाव है। शीतल, मन्द पवन एकान्त उद्दीपन विभाव है। स्मृति, रुदन, चपलता, आवेग, उन्माद और आदि संचारियों से पुष्ट श्रीकृष्ण से मिलन के अभाव में यहाँ वियोग शृंगार रस का परिपाक हुआ है।
4. वीर रस – अर्थ– उत्साह की अभिव्यक्ति जीवन के कई क्षेत्रों में होती है। शास्त्रकारों ने मुख्य रूप से ऐसे चार क्षेत्रों का उल्लेख किया है— युद्ध, धर्म, दया और दान। अत: इन चारों को लक्ष्य कर जब उत्साह भाव जाग्रत और पुष्ट होता है तब वीर रस उत्पन्न होता है। उत्साह नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से वीर रस की दशा को प्राप्त होता है।
उदाहरण—
साजि चतुरंग सैन अंग मैं उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीनत चलत हैं ।
भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी नद मद गैबरन के रलत हैं ।
स्पष्टीकरण- प्रस्तुत पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। ‘शिवाजी के हृदय का उत्साह’ स्थायी भाव है। ‘युद्ध को जीतने की इच्छा’ आलम्बन है। ‘नगाड़ों का बजना’ उद्दीपन है । ‘हाथियों के मद का बहना’अनुभाव ‘है तथा ‘उग्रता’ संचारी भाव है।
5. शान्त रस – अर्थ-संसार की निस्सारता तथा इसकी वस्तुओं की नश्वरता का अनुभव करन से ही चित्त में वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार निर्वेद नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से शान्त रस का रूप ग्रहण करता है।
उदाहरण –
अब लौं नसानी अब न नसैहौं ।
राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं ।
पायो नाम चारु चिंतामनि उरकर तें न खसैहौं ।
श्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचर्नाह कसैहौं ।
परबस जानि हँस्यों इन इन्द्रिन निज बस है न हँसैहौँ ।
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं । – तुलसी : विनय-पत्रिका
स्पष्टीकरण – यहाँ ‘निर्वेद’ स्थायी भाव है। सांसारिक असारता और इन्द्रियों द्वारा उपहास उद्दीपन है। स्वतन्त्र होने तथा राम के चरणों में रति का कथन अनुभाव है। धृति, वितर्क, मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट निर्वेद शान्त रस को प्राप्त हुआ है।
(ख) अलंकार
अलंकार शब्द–‘अलं + कार’ दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है जो शोभा बढ़ाए।
आचार्य दण्डी के मतानुसार-“काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।” अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों (साधनों) को अलंकार कहते हैं।
अलंकार के भेद-इसके दो भेद बताए गए हैं
(i) शब्दालंकार
(ii) अर्थालंकार
जब केवल शब्दों में चमत्कार पाया जाए तब शब्दालंकार और जब अर्थ में चमत्कार पाया जाए तब वहाँ अर्थालंकार होता है।
1. उपमा अलंकार –
परिभाषा—जब दो भिन्न वस्तुओं में किसी गुण-धर्म के आधार पर सादृश्य या समानता की जाए वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उदाहरण- “सिय मुख सुन्दर चन्द्र समाना।”
उक्त उदाहरण में कवि ने सीता जी का मुख चन्द्रमा के समान बताकर इसमें उपमा अलंकार बताया है।
उपमा अलंकार के चार भेद (अंग) हैं-
(i) उपमेय–जिसकी तुलना की जाती है।
(ii) उपमान–जिससे तुलना की जाती है।
(iii) वाचक- तुलना के शब्द-सी, सम, सरिस, तरह, समान है।
(iv) धर्म-जिस गुण के आधार पर समानता प्रकट हो।
अन्य उदाहरण –
(i) अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था।
(ii) पीपर पात सरिस-मन डोला।
2. रूपक अलंकार –
परिभाषा – जहाँ उपमेय में उपमान का भेदरहित (अभेद) आरोप हो अर्थात् जब उपमेय और उपमान एकसमान हो जाते हैं, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण- चरण-कमल बन्दौं हरि राई ।
इस उदाहरण में ‘चरण’ प्रस्तुत तथा ‘कमल’ अप्रस्तुत है। चरण में कमल का आरोप किया गया है।
अन्य उदाहरण-
(i) उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विकसे सन्त सरोज सब, हरषे लोचन बृन्द ।।
(ii) भज मन चरण-कँवल अविनासी ।
3. उत्प्रेक्षा अलंकार –
परिभाषा-जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना की जाए, वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अथवा “जहँ कीजै संभावना सो उत्प्रेक्षा जानि” इसमें मनु, जनु, जानों, मानों, मनहुँ, मानहुँ, जानहुँ आदि वाचक शब्द आते हैं।
उदाहरण- सोहत ओढ़े पीत पटु, स्याम सलोने गात।
मनहुँ नीलमणि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात ॥
इसमें ‘मनहुँ’ वाचक शब्द होने से उत्प्रेक्षालंकार है।
अन्य उदाहरण –
(i) कहते हुए यों उत्तरा के, नेत्र जल से भर गये।
हिम के कणों से पूर्णमानों, हो गये पंकज नये।
(ii)पुनि कह कटु कठोर कैकेई।
मनहुँ धाय महुँ माहुर देई ।।
(iii) मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा में प्रस्तुत सदा मानो मुझे ।।
3. अनुप्रास अलंकार – एक ही वर्ण की बार-बार आवृत्ति होने पर अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण – कानन कठिन भयंकर भारी। घोर घाम हिम वारि-बयारी ।।
स्पष्टीकरा – इस उदाहरण में ‘क’, ‘भ’, ‘र’, ‘घ’, ‘म’ अक्षर एक से अधिक बार आये हैं। इसलिए अनुप्रास अलंकार है।
4. यमक अलंकार – जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आता है और भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है तो वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण- काली घटा का घमण्ड घटा ।
नभ मण्डल तारक वृन्द खिले ॥
स्पष्टीकरण- इस उदाहरण में ‘घटा’ शब्द दो बार आया है और दोनों स्थानों पर उसका अर्थ भिन्न-भिन्न है- (1) घटा = बादल, (2) घटा = कम हो गया,घट गया।
5. श्लेष अलंकार – जब एक शब्द एक ही बार प्रयुक्त होता है, किन्तु उसके दो या दो से अधिक अर्थ होते हैं, तब वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण – चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ।।
स्पष्टीकरण – इस उदाहरण में ‘वृषभानुजा’ और ‘हलधर’ शब्द एक ही बार आये हैं, किन्तु उनके अर्थ अनेक हैं- (1) वृषभानुजा = (i) राजा वृषभानु की पुत्री राधा तथा (ii) वृषभ (बैल) की बहन गाय। (2) हलधर—(i) बलराम तथा (ii) बैल। यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्द में श्लेष अलंकार है।
(ग) छन्द
छन्द का आशय बन्धन से है। छन्द को अंग्रेजी भाषा में METRE या VERSE कहते हैं। छन्द काव्य के प्रवाह को लययुक्त, सुव्यवस्थित तथा संगीतात्मक बनाता है। इसके साथ ही यह काव्य को स्मरण योग्य भी बना देता है।
छन्द के भेद-छन्द के निम्नलिखित भेद हैं-
1. मात्रिक छन्द – जो मात्रा की गणना पर आधारित हों, वे ‘मात्रिक छन्द’ कहलाते हैं। इनमें वर्णों की संख्या तो भिन्न हो सकती है लेकिन उनमें निहित मात्राएँ नियमानुसार ही होनी चाहिए। जैसे–चौपाई, दोहा, सोरठा, रोला, बरवै आदि मात्रिक छन्द कहे जाते हैं।
2. वर्णिक छन्द – वर्णिक छन्द का एक क्रमबद्ध, नियोजित तथा व्यवस्थित रूप वर्णिक वृत्त होता है। वर्णिक वृत्तों में गीतिका, हरिगीतिका, वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, मालिनी, उपेन्द्रवज्रा, शिखरिणी आदि छन्द मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं।
3. मुक्त छन्द – हिन्दी में स्वतन्त्र रूप से लिखे जा रहे छन्द मुक्त छन्द हैं। जिनमें वर्ण, मात्रा का कोई बन्धन नहीं रहता। आधुनिक कविता आज इसी मुक्त छन्द में लिखी जा रही है। जैसे—वह तोड़ती पत्थर, देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर। (मुक्त छन्द)
(क) मात्रा-वर्ण या अक्षर के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे हम मात्रा कहते हैं। लघु वर्ण की एक मात्रा तथा दीर्घ की दो मात्राएँ मानी जाती हैं। ह्रस्व तथा दीर्घ को पिंगलशास्त्र में क्रमश: लघु तथा गुरु कहते हैं। जैसा कि–“एक मात्रो भवेत् ह्रस्वः, द्वि-मात्रो दीर्घमुच्यते।” ह्रस्व या लघु को (1) तथा गुरु या दीर्घ को (5) से प्रकट करते हैं।
(ख) यति (विराम ) – छन्द की एक लय होती है जिसे गति या प्रवाह कहते हैं। छन्द में विराम के नियमों का पालन होता है। छन्द के प्रत्येक चरण में उच्चारण करते समय मध्य या अन्त में जो विराम होता है उसे हम ‘यति’ कहते हैं।
(ग) पाद या चरण-छन्द में अधिकांशतः चार पंक्तियाँ होती हैं। छन्द की एक पंक्ति का नाम चरण / पाद है। इसी पाद को हम उस छन्द का चरण कहते हैं। पहले तथा तीसरे चरण को ‘विषम’ तथा दूसरे और चौथे चरण को ‘सम’ चरण कहा जाता है।
(घ) वर्णिक गण-वर्णिक वृत्तों में गणों की व्यवस्था तथा गणना हेतु तीन-तीन वर्णों के गण-समूह बनाए गए हैं जिन्हें हम वर्णिक गण कहते हैं। इनकी संख्या आठ बताई गई है। जोकि नीचे दिए गणों से स्पष्ट हो जाएगा–
सूत्र – ‘यमाताराजभानसलगा’।
गणनाम | मात्राएँ | उदाहरण |
---|---|---|
1. यगण | । ऽ ऽ | यशोदा |
2. मगण | S S S | मात्राज्ञा |
3. तगण | ऽ ऽ । | आकाश |
4. रगण | ऽ । ऽ | आरती |
5. जगण | । ऽ । | हसीन |
6. भगण | ऽ । । | आरत |
7. नगण | । । । | नयन |
8. सगण | । । S | तबला |
1. सोरठा छन्द
परिभाषा – यह दोहे छन्द का उल्टा होता है। इसके पहले तथा तीसरे चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण– | ||||||
ऽ जो | । । । । सुमिरत | ।। सिधि | ऽ। होइ, | । । ऽ। । गननायक | । । । । करिबर | । । । वदन |
। । । करहु | ।ऽ।। अनुग्रह | ऽ। सोइ, | ऽ।ऽ। बुद्धिरासि | । । सुभ | । । गुन | । । । सदन |
अर्थात् 11 +13 = 24 मात्राएँ। |
अन्य उदाहरण –
(i) लिखकर लोहित लेख, डूब गया दिनमणि अहा।
व्योम सिन्धु सखि देख, तारक बुदबुद दे रहा।।
(ii)नाचहिं गावहिं गीत, परम तरंगी भूत सब।
देखत अति विपरीत, बोलहिं बचन विचित्र विधि।
2. रोला छन्द –
परिभाषा—यह सममात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 11 तथा 13 मात्राओं पर यति होती है।
उदाहरण –
।। | ऽ । । | ऽ ऽ । | ऽ । | ।। | ।।।। | ऽ । । |
कोउ बनि पै नौ | पापिह बनि तकि द्वै | पंचत्व बावन ताकी ग्यारह | प्राप्त वीर लोथ होत | सुनि बढ़त त्रिपथगा तीन | जमगन चौचंद के तट पाँचहिं | धावत। मचावत् ।। लावत। विसरावत।। |
-गंगावतरण-रत्नाकर |
स्पष्टीकरण—इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ हैं। 11-13 पर यति है, अतः यह रोला छन्द है।
अन्य उदाहरण –
(i) पर साहस यह रूप, देख होता है विस्मय,
आर्य लोग क्या एक, समय थे ऐसे निर्भय।
क्या हम सब जो आज, बने हैं निर्बल कामी,
रहते थे स्वाधीन, समर में होकर नामी।।
(ii) कृपा निधान सुजान संभु हिय की गति जानी।
दियौ सीस पर ठाम बाम करि कै मन मानी।।
सकुचति ऐंचति अंग गंग सुख संग लजानी।
जटा-जूट हिम कूट सघन बन सिमटि समानी।।
-गंगावतरण-रत्नाकर
3. चौपाई –
परिभाषा— चौपाई सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। अन्त में ‘जगण’ (।ऽ।) अथवा ‘तगण’ (ऽऽ।) का प्रयोग नहीं होना चाहिए। अर्थात् अन्तिम दो वर्ण गुरु-लघु नहीं होने चाहिए।
उदाहरण –
ऽ।। बंदउ | ।। गुरु | ।। पद | ।।। पदुम | ।ऽऽ परागा। | ।।। सुरुचि | ।ऽ। सुवास | ।।। सरस | ।।ऽऽ अनुरागा ॥ |
16 + 16 = 32 मात्राएँ | ||||||||
।।। अमिय | ऽ।।। मूरिमय | ऽ।। चूरन | ऽ ऽ चारू। | ।।। समन | ।।। सकल | ।। भव | ।। रुज | ।।ऽऽ परिवारू ॥ |
16 + 16 = 32 मात्राएँ |
4. दोहा –
परिभाषा—दोहा अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके पहले और तीसरे (विषम) चरणों में 13, 13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे (सम) चरणों में 11, 11 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण –
ऽऽ मेरी | ।। भव | ऽऽ बाधा | ।ऽ हरौ, | ऽऽ राधा | ऽ।। नागरि | ऽ। सोइ। |
13+11 = 24 मात्राएँ | ||||||
ऽ ।। जा तन | ऽ ऽ ऽ की झाईं | ।ऽ परै, | ऽ। स्यामु | ।।। हरित | ।। दुति | ऽ। होइ॥ |
13+11 = 24 मात्राएँ |
5. कुण्डलिया
परिभाषा— यह विषम मात्रिक छन्द है। इसमें छः चरण होते हैं। दोहा के बाद एक रोला पर कुण्डलिया बन जाता है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। जिस शब्द से छन्द आरम्भ होता है, उसी शब्द से इसका अन्त भी होता है और का प्रथम चरण दोहा का चतुर्थ होकर आता है।
उदाहरण-
।।।। कृतघन | ।।। कतहुँ | । न | ऽ।ऽ मानहीं, | ऽ। कोटि | ।ऽ करौ | ऽ जो | ऽ। कोय । |
13 + 11 = 24 मात्राएँ |
सरबस आगे राखिये, तऊ न अपनो होय ॥
तऊ न अपनो होय, भले की भली न मानै ।
काम काढ़ि चुपि रहे, फेरि तिहि नहिं पहचानै ॥
कह ‘गिरधर कविराय’, रहत नित ही निर्भय मन ।
मित्र शत्रु ना एक, दाम के लालच कृतघन ॥
11 +13 = 24 मात्राएँ