मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद पर निबंध 750 शब्दों में
मुंशी प्रेमचंद मेरे प्रिय एवं आदर्श साहित्यकार हैं। यह हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तंभ थे जिन्होंने हिंदी जगत को कहानियां एवं उपन्यासों की अनुपम सौगात प्रस्तुत की। इनकी उत्कृष्ट चुनाव के लिए मुंशी प्रेमचंद उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं।
केवल साहित्यकार ही नहीं अपितु सच्चे अर्थों में समाज सुधारक भी कहे जा सकते हैं क्योंकि अपनी रचनाओं से उन्होंने भारतीय ग्राम्य जीवन के शोषण, निर्धनता जातीय दुर्भावना, विशाल आदि विभिन्न रंगों का जो यथार्थ चित्रण किया है उसे कोई विरला ही कर सकता है।
भारत के दर्द और संवेदना और उन्होंने भली-भांति अनुभव किया और उनके स्वर आज भी उनकी रचनाओं के माध्यम से जनमानस से गूंज रहे हैं मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में लम्हे नामक ग्राम में सन 1800 ई० को एक कायस्थ परिवार में हुआ था।
इनके पिता श्री अजायब राय तथा माता आनंदी देवी थीं। मुंशी प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय था, परंतु बाद में साहित्य जगत में मुंशी प्रेमचंद के रूप में प्रख्यात हुए।
मुंशी प्रेमचंद जीने प्रारंभ से ही उर्दू का ज्ञान अर्जित किया। 1898 ई० मैं मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर के पश्चात वे सरकारी नौकरी करने लगे। नौकरी के साथ ही उन्होंने अपनी इंटर की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। बाद में स्वतंत्रता सेनानियों के प्रभाव से उन्होंने सरकारी नौकरी की तिलांजलि दे दी तथा बस्ती जिले में अध्यापन कार्य करने लगे। इसी समय उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
मुंशी प्रेमचंद ने आरंभ में उर्दू में अपनी रचनाएं लिखिए जिनमें सफलता भी मिली परंतु भारतीय जनमानस के रुझान को देखकर उन्होंने हिंदी में साहित्य कार्य की शुरुआत की। परिवार में बहुत गरीबी थी बावजूद इसके उन्होंने अपनी रचना धर्मिता से कभी मुंह ना मोडा।
वे अपनी अधिकतर साहित्य को समर्पित कर दिया करते थे। निरंतर कार्य की अधिकता एवं खराब स्वास्थ्य के कारण वे अधिक समय तक अध्यापन कार्य जारी ना रख सके।
1921 ई० मैं उन्होंने साहित्य जगत में प्रवेश किया और लखनऊ आकर माधुरी नामक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। इसके पश्चात काशी में उन्होंने स्वयं हंस तथा जागरण नामक पत्रिका का संचालन प्रारंभ किया परंतु इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। घर की आर्थिक विपन्नता की स्थिति में कुछ समय के लिए उन्होंने मुंबई में फिल्म तथा लेखन का कार्य भी किया।
अपने जीवन काल में उन्होंने पत्रिका के संचालन वह संपादन के अतिरिक्त अनेक कहानियां उपन्यास लिखे जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं सचिव लगते हैं जितने उस काल में थे। मात्र 56 वर्ष की अल्पायु में हिंदी साहित्य जगत का यह विलक्षण सितारा चिरकाल के लिए निद्रा-नीमग्न हो गया।
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने अल्प साहित्यिक जीवन में लगभग 200 से अधिक कहानियां लिखी जिनका संग्रह आठ भागों में मानसरोवर के नाम से प्रकाशित है। कहानियों में अतिरिक्त उन्होंने 14 उपन्यास लिखे जिनमें से गोदान उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसके अतिरिक्त रंगभूमि, सेवासदन, गबन, प्रेमाश्रम, निर्मला, कायाकल्प, प्रतिज्ञा आदि अनेक प्रचलित उपन्यास है।
यह सभी उपन्यास लेखन ने दृष्टि से इतना सचिव एवं सशक्त है कि लोग मुंशी जी को उपन्यास सम्राट की उपाधि में सम्मानित करते हैं। कहानी और उपन्यासों के अतिरिक्त नाटक विद्या में भी मुंशी प्रेमचंद जी को महारत हासिल थी। चंद्रावर उनका सुप्रसिद्ध नाटक है। उन्होंने अनेक लोकप्रिय निबंध, जीवन चरित्र तथा बाल साहित्य की रचना भी की है।
उर्दू भाषा का सशक्त ज्ञान होने के कारण उन्हें अपनी प्रारंभिक रचनाएं उर्दू भाषा में लिखी परंतु बाद में उन्होंने हिंदी में लिखना प्रारंभ कर दिया इनकी रचनाओं में उर्दू भाषा का प्रयोग सहजता व रोचकता लाता है।
मुंशी प्रेमचंद जी की उत्कृष्ट रचनाओं के लिए यदि उन्हें उपन्यास सम्राट के स्थान पर साहित्य सम्राट की उपाधि दी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी मुंशी प्रेमचंद जी के पत्रों के वर्ग प्रतिनिधित्व को सहजता से देखा जा सकता है। वे समाज का चित्रण उनके उत्कृष्ट ढंग से करते थे कि संपूर्ण अर्थात सहजता से उभरकर मस्तिष्क पटल पर चित्रित होने लगता था।
ऐसे महान उपन्यासकार, नाटककार व साहित्यकार के लिए इनसे बढ़कर और बड़ी श्रद्धांजलि क्या होनी कि उनकी मृत्यु के 8 दशकों बाद भी इनकी रचनाओं में प्रसंगिकता पूर्ववत् बनी हुई है। हजारों की संख्या में लोग इनकी रचनाओं व शैली पर शोध कर रहे हैं। वह निसंदेह अपने हिंदी साहित्य का गौरव थे, हैं और सदैव ही रहेंगे।
मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में समाज के सबसे अपेक्षित वर्ग की समस्याओं को यथार्थ में धरातल पर प्रस्तुत किया गया है गोदान का पात्र होरी भारतीय किसानों कि दुख सुख में भरी संपूर्ण जीवन यात्रा का आदर्श प्रतिनिधित्व करता है। प्रेमचंद