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भ्रष्टाचार पर निबंध – Bhrashtachar per nibandh

भ्रष्टाचार

रूपरेखा  1. प्रस्तावना 2.नैतिकता पतन 3.सुलभ मार्ग की तलाश 4.आर्थिक असमानता 5.महत्वाकांक्षा 6.प्रभावी कानून की कमी 7.कठोर और प्रभावी व्यवस्था 8.उपसंहार

भ्रष्टाचार पर निबंध
भ्रष्टाचार पर निबंध

1.प्रस्तावना – श्रीमद्भगवद्गीता के सोलवे अध्ययन के 21 श्लोक में कहा गया है-

त्रिविधं नर्कस्येदं दं नशनमतमन: ।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं सत्यजेत।।

नर्क के तीन द्वार हैं – काम, क्रोध तथा लोभ। प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दें, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है।।आत्मा का पतन ही है भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल है। अब विवेचन का विषय यह है कि काम, क्रोध एवं लोभरूपी ये दूवृत्ति जो आत्मा या अंतरात्मा के पतन के कारण है, जो हमारे हृदय में क्यों उत्पन्न होते हैं?

कामना की तात्पर्य मैं एक हूं अनेक हो जाऊं। सृष्टि का सूत्रपात संभव हुआ, ऐसा आर्षमत है। मनुष्य की प्रकृति का विजय की कामना से ही विज्ञान का उद्भव वैभव और विकास संभव हुआ। फिर काम या कामना विकार या दूवृत्ति क्यों?

तात्पर्य यह कि सत्य काम को पुरुषार्थ की श्रेणी में है, काम से ही सृष्टि एवं सफल भौतिक जगत उत्पन्न हुआ किंतु इस भौतिकवादी युग में असत्य कांति मनुष्य का इष्ट हो गया है। मनुष्य जीवन एवं मंकी क्षणभंगुरता से भयग्रस्त हो जाता हैं, फिर आवश्यकता से अधिक काम अर्थात सांसारिक भोगो (स्त्री ही नहीं वरन सभी ऐसो आराम भी) को भोगना चाहता है और काम पुरुषार्थ से वासना बन जाती है।

अतएव असम्यक् एवं असत्य काम या अकर्मणंयता के बावजूद समस्त भोगों की इच्छा ही भ्रष्टाचार का पहला स्रोत है। काम का ही दूसरा स्वरूप लोग का लिप्सा है जो भ्रष्टाचार का दूसरा जनक है।

हमारा यह हमारे सगे-संबंधियों का सुख समाप्त ना हो जाए, यह भय हमें सतत सताता है और राज्य समाज के द्वारा हमारी योग्यता एवं श्रम के अनुरूप प्राप्त की ओर से हमें संतोष नहीं मिलता है और हमारे लोग हमें भ्रष्टाचार के मार्ग पर प्रवृत्त कर देता है भ्रष्टाचार का तीसरा कारण है-मद।

सत्ता में पद एवं पराक्रम प्राप्त होता है मनुष्य अपने जीवन में संघर्ष से बचने के लिए सतत् पद एवं पराक्रम से अभिवृद्धि करते रहना चाहता है। अयोग्य को पद एवं ताकत प्रदान करने पर मत या अहंकारी रूप विकार का सृजन होता है जो हमें भ्रष्टाचारगामी बना देता है किसी ने कहा भी है- ताकत भ्रष्टाचारी बनाता है और पूर्ण ताकत तो पूर्णरूपेण।

भ्रष्टाचार का स्रोत अथवा कारण

2.नैतिकता पतन – जैसा कि इसके नाम से ही उसका पहला स्रोत स्पष्ट होता है आचरण का भ्रष्ट हो जाना ही भ्रष्टाचार है। आचरण का प्रतिनिधित्व सदैव नैतिकता करती है। किसी का नैतिक उत्थान अथवा पतन उसके आचरण पर भी प्रभाव डालता है।

आधुनिक शिक्षा पद्धति और सामाजिक परिवेश में बच्चों के नैतिक उत्थान से प्रति लापरवाही बच्चों को पूरे जीवन प्रभावित करती है एक बच्चा ₹10 लेकर बाजार जाता है ₹10 में से अगर ₹2 बच सकते हैं तो चाहे घर वालों की लापरवाही अथवा छोटी बात समझ कर अनदेखा करने के कारण बच्चा उन दो रुपयों को छुपा लेता है और जब धीरे-धीरे यह आदत में शुमार हो जाता है तो उसे स्तर पर भ्रष्टाचार की पहली सीढी शुरू होती है।

अर्थात जब जीवन की पहली सीढ़ी पर ही उनके उचित मार्गदर्शन नैतिकता का पाठ और औचित्य-अनौचित्य सफेद करने का ज्ञान उसके पास नहीं होता तो उसका आचरण धीरे-धीरे उसकी आदत में बदल जाता है। अतः भ्रष्टाचार का पहला स्रोत परिवार होता है जब बालक नैतिक ज्ञान के अभाव से उचित और अनुचित के बीच भेद करने तथा नैतिकता के प्रति मानसिक रूप से सबल होने में असमर्थ हो जाता है।

3.सुलभ मार्ग की तलाश – यह मानव स्वभाव होता है कि किसी भी कार्य को व्यक्ति कम से कम कष्ट उठाकर प्राप्त कर लेना चाहता है। हर कार्य के लिए एक छोटा और सुगम रास्ता खोजने का प्रयास करता है इसके लिए दो रास्ते हो सकते हैं एक रास्ता नैतिकता का हो सकता है।

जो लंबा और कष्टप्रद भी हो सकता है और दूसरा रास्ता छोटा किंतु अनैतिक रास्ता। लोग अपने लाभ के लिए जो छोटा रास्ता चुनते हैं उनसे खुद तो भ्रष्ट होते ही हैं दूसरे को भी भ्रष्ट बनने में बढ़ावा देते हैं।

4.आर्थिक असमानता – कई बार परिवेश और परिस्थितियां भी भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार होती हैं। हर मनुष्य की कुछ मूलभूत आवश्यकता होती है जीवन यापन के लिए धन और सुविधाओं की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएं होती हैं विगत कुछ दशकों में पूरी दुनिया में अधिक असमानता तेजी से बढ़ी है।

अमीर लगातार और ज्यादा अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब को अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जब व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएं सदाचार के रास्ते पूरी नहीं होती तो वह नैतिकता पर से अपना विश्वास होने लगता है और कहीं-ना-कहीं जीवन रहने के लिए अनैतिक होने के लिए बाध्य हो जाता है।

5.महत्वाकांक्षा – कोई तो कारण ऐसा है कि लोग कई कई सौ करोड़ के घोटाले करने और धन जमा करने के बावजूद भी और धन पाने की लालायित रहते हैं और उनकी क्षुधापूर्ति नहीं हो पाती। तेजी से हो रहे विकास और बदल रहे सामाजिक परिदृश्य ने लोगों में तमाम ऐसी नई मातृछाया पैदा कर दी है जिसकी पूर्ति के लिए वह अपने वर्तमान आर्थिक ढांचे में रहकर कुछ कर सकने में स्वयं को अक्षम पाते हैं।

जितनी तेजी से दुनिया में नई-नई सुख-सुविधा के साधन भरते हैं उसी तेजी से महत्वकांक्षी भी बड़ी है, उन्हें नैतिक मार्ग पर पाना लगभग असंभव हो जाता है ऐसे में भ्रष्टाचार के द्वारा लोग अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए प्रेरित होते हैं।

6.प्रभावी कानून की कमी – भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण यह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए या तो प्रभावी कानून नहीं होते हैं अथवा उनके क्रिया नव्यम के लिए सरकारी मशीनरी का ठीक प्रदर्शन नहीं होता। सिस्टम में तमाम ऐसी शाखाएं होती है जिनके सहारे अपराधी भ्रष्टाचारी को दंड दिलाना बेहद मुश्किल हो जाता है।

कुछ परिस्थितियां ऐसी भी होती है जहां मनुष्य को दबा हुआ भ्रष्टाचार करना और सहन करना पड़ता है। इस तरह का भ्रष्टाचार सरकारी विभागों में बहुतायत से दिखता है। वह चाह कर भी नैतिकता के रास्ते पर बना नहीं रह पाता है क्योंकि उसके पास भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए अधिकार सीमित और प्रतिक्रिया जटिल है।

7.कठोर और प्रभावी व्यवस्था – दुनिया के किसी भी देश में भ्रष्टाचार और अपराध से निपटने के लिए कठोर और प्रभावी कानून व्यवस्था का होना तो अति आवश्यक है ही…. साथ ही इसके प्रभावी मशीनरी के द्वारा प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जाना ही बेहतर आवश्यक है। दुनिया भर में कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी मशीनरिया काम करती हैं।

अब लगभग हर देश में पुलिस, फायर सर्विस जैसी तमाम सरकारी सहायता के लिए एक यूनिक नंबर होता है जिसके मिलते ही वे सुरक्षा आम लोगों को मिलती है। लेकिन यदि कोई रिश्वत मांगता है अतः भ्रष्टाचार करता है तो ऐसी कोई सी भी व्यवस्था नहीं दिखती है कि एक फोन मिलाते ही भ्रष्टाचार निरोधी दस्ता आए और पीड़ित की समस्या करें और भ्रष्ट के खिलाफ कार्रवाई करें।

8.उपसंहार – इसके अतिरिक्त और भी बहुत से उपाय किए जा सकते हैं जो भ्रष्टाचार को कम करने अथवा मिटाने में कारगर हो सकते हैं परंतु श्रेयस्कर यही है कि सख्त और प्रभावी कानून के नियंत्रण के साथ नैतिकता और ईमानदारी अंदर से पल्लवित हो ना कि बाहर सेट होती जाए।

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