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पराधीनता पर निबंध – Paradhinta par nibandh in Hindi

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं अथवा स्वतन्त्रता का महत्त्व अथवा स्वाधीनता का सुख अथवा पराधीनता : एक अभिशाप अथवा स्वाधीनता की आवश्यकता

रूपरेखा – 1. प्रस्तावना 2. पराधीनता से मानव दुखी 3. पराधीनता के प्रकार 4. पराधीनता का प्रभाव 5. पराधीनता का प्रभाव 6. उपसंहार।

सर्वपरवशं दुखं, सर्वमात्मवशं सुखं ।
एतद्विघात समासेन, लक्षणं दुखः योः ॥

पराधीनता पर निबंध
पराधीनता पर निबंध
पराधीनता पर निबंध 1050 शब्दों में – Paradhinta par nibandh in Hindi

1. प्रस्तावना – स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसका विरोधी सही अर्थों में पराधीनता है। मनुष्य ही नहीं विश्व का कोई प्राणी पराधीन होकर जीवित नहीं रहना चाहता। वह निरन्तर स्वतन्त्र होने के लिए प्रयत्न करता है। पराधीनता सोचने-समझने की शक्ति नष्टं कर देती है। स्वतन्त्र रहकर मनुष्य अभिव्यक्ति करने के लिए भी स्वतन्त्र होता है। मर्यादित रहकर वह जो चाहे कर सकता है।

परतन्त्रता में यह सुख नहीं है। भारत ऐसा राष्ट्र है जिससे लगभग सात-आठ सौ वर्षों की पराधीनता भोगी है। सन् 1947 ई० में राष्ट्र पराधीनता से मुक्त हुआ और तब से लेकर आज तक यहाँ के नागरिक स्वतन्त्रता के सुख भोग रहे हैं।

मनुष्य की तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है-जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति पराधीन को जागते समय सुख नहीं मिलता, सुषुप्ति पूर्ण निद्रा की स्थिति है, जब वह सभी बातों से अनभिज्ञ रहता है। स्वप्न की स्थिति में वह अपने इच्छाओं और अपने विचारों को पूरा होते देखता है, पराधीन रहने पर स्वप्न में भी उसे सुख नहीं मिलता है।

2. पराधीनता से मानव दुःखी- मनुष्य के पास सब प्रकार की सुख सुविधाएँ हों, किन्तु उसे पराधीन बना दिया जाए तो वह ऐसा ही है मानो आकाश में स्वतन्त्र उड़ने वाले पक्षी को स्वर्ण के पिंजरे में डाल दिया जाए, जंगलों में घूमने वाले आजाद पशु को कैद कर लिया जाए। इस स्थिति में वह सदैव दुःखी ही रहता है।

उसका विकास रुक जाता है तथा वह स्वतन्त्र होने के लिए छटपटाता रहता है। पराधीन का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं होता। उसकी सृजनात्मकता, प्रतिज्ञा, शक्ति सभी कुछ कुंठित हो जाता है। वह दूसरों की कृपा पर जीता है।

पराधीनता की बेड़ियाँ उसे कुछ भी स्वतन्त्र करने नहीं देती। उसे सदैव यही भय होता है कि कहीं उसे पराधीन बनाने वाला विभिन्न प्रकार की यातनाएँ न दे। सब प्रकार से शोषित होकर उसका सुख-चैन और आनन्द नष्ट हो जाता है।

3. पराधीनता के प्रकार—पराधीनता (पर + अधीनता) शब्द ‘पर’ और ‘अधीनता’ इन दो शब्दों के मिश्रण द्वारा बना है। इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति दूसरे के वश में या डर के कारण उसके अनुसार ही चलता है वह पराधीन कहलाता है। पराधीन व्यक्ति या देश अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य नहीं कर पाता है।

पराधीनता को मनुष्य अनेक रूपों में अनुभव करता है। इसी कारण यह अनेक प्रकार की हो सकती है। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक उसके मुख्य प्रकार हैं। इनमें भी राजनीतिक पराधीनता मूल कारण होती है। भारत को राजनीति पराधीनता से मुक्ति पाने के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ा।

विभिन्न प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ी और अनेक व्यक्तियों ने प्राणों की आहुति दे दी। अन्ततः सफलता प्राप्त हुई। उस समय यहाँ की अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन सभी कुछ अपने अधिकार में आ गया। किन्तु इस प्रकार की वैचारिक दासता पराधीन रहने पर थी, अप्रत्यक्ष रूप से आज भी विद्यमान है।

इमें अपने विचारों-भावनाओं की अभिव्यक्ति करने की स्वतन्त्रता तो है किन्तु उसके पीछे भारत के बाहर की संस्कृति सभ्यता को अपनाने की ललक भी है। निश्चय ही इससे भारत के अपने व्यक्तित्व का विकास सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसमें हमारा सामाजिक जीवन प्रभावित हो रहा है। इस राष्ट्र की पराधीनता सर्वाधिक घातक होती है।

4. पराधीनता का प्रभाव – पराधीनता का प्रभाव गहरा होता है। बड़े से बड़ा बलशाली, विद्वान, कर्मठ व्यक्ति भी इससे हार जाता है। अपने अन्तर में मनुष्य पीड़ा और दुख अनुभव करता है, किन्तु केवल विद्रोह कर सकता है जिसकी अवधि बहुत लम्बी होती है।

पराधीन होने पर भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है, पर आशा की धुँधली किरण सदैव ,राष्ट्र की पराधीनता सम्मान को ही समाप्त विद्यमान रहती है। व्यक्ति के स्तर पर पराधीनता व्यक्तित्व का नाश करती कर देती है। व्यक्ति के लिए राष्ट्र का सम्मान सर्वोपरि है।

राष्ट्र जीवित रहता है तो हम भी अपने को जीवित पाते हैं। यही कारण है कि राष्ट्र के सम्मान की रक्षा करना हमारा परम कर्त्तव्य है। आज आवश्यकता वैचारिक स्वतन्त्रता की है। नकल अथवा अनुकरण की अपेक्षा स्वतन्त्र विचारों तथा आचरण को अपनाना हमारे विकास का मूलमंत्र है।

5. स्वाधीनता का तात्पर्य – स्वाधीनता का वास्तविक अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति स्वतन्त्र होने के कारण नियमों का पालन नहीं करेगा। नियमों का पालन तो स्वतन्त्रता का प्रमुख अंग है। स्वाधीनता का तात्पर्य यह नहीं है कि स्वतन्त्र व्यक्ति अनुशासन में नहीं रहेगा। यह तो अनुशासन सिखाने की पाठशाला है।

जिस प्रकार हम स्वाधीन रहना चाहते हैं, हम अपने राष्ट्र को आजाद रखना चाहते हैं उसी प्रकार दूसरे भी आजाद रहना चाहते हैं, दूसरे राष्ट्र भी स्वतन्त्र रा चाहते हैं। दूसरे राष्ट्रों की स्वाधीनता (स्वतन्त्रता) का सम्मान करना चाहिए।

स्वतन्त्रता मनुष्य के लिए वरदान है। स्वतन्त्र होने पर ही व्यक्ति अपने देश की उन्नति कर सकता है। उसका सर्वांगीण विकास होता है। स्वतन्त्रता से कला और साहित्य का भी विकास होता है। देशवासियों का स्वाभिमान जागता है।

6. उपसंहार–व्यक्ति की उन्नति का रहस्य आत्मविश्वास में निहित है। आत्मविश्वास का डगमगाना निराशा को जन्म देता है तथा निराशा मृत्यु का दूसरा नाम है। अतः यदि हम उन्नति चाहते हैं, शिखर तक पहुँचना चाहते हैं तो आत्मविश्वास दृढ़ करना होगा। इसके लिए वैचारिक स्वतन्त्रता अपनानी होगी।

विचारों की पराधीनता तो स्वप्न में भी सुख नहीं दे पाती। राष्ट्र, समाज और व्यक्ति का सुख स्वतन्त्र रहने में हैं, पराधीन होकर जीना मानवता को नष्ट करने के समान है। इसीलिए प्रत्येक मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष करे। पराधीनता तो मानवता के लिए कलंक है।

वैसे कहने को तो आज हम स्वतन्त्र भारत के नागरिक हैं, परन्तु अभी हम रहन-सहन, भाषा, वेश-भूषा, आदि की दृष्टि से परतन्त्र ही हैं। हमें उन्हें छोड़ना ही होगा तभी हमें अपने आप को स्वतन्त्र कहने का अधिकार होगा। पराधीनता तो नरक है और स्वाधीनता स्वर्ग। पराधीनता चाहे किसी प्रकार की भी हो, वह हमें सुख-शान्ति नहीं दे सकती। तभी तो किसी ने कहा-

“मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर,
तो गुलामी के हलवे से वह भी है बेहतर॥”

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